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________________ [शास्त्रवार्ताः स्त. १०/१३ एतत्पशेऽपि अदः अभावः कथमेतस्य इति समम् , प्रत्यक्षेण सतोऽप्यर्थस्यातिदूरस्वादिनाऽग्रहणात् तदभावासिद्धेः अन्यथा धर्मादरप्यभावप्रसङ्गात् । अनिष्टं चैतद् भीमांसकस्यास्तिकताभिमानिनः । चाकिस्तु वराकोऽतीन्द्रियमात्रीच्छेदमिच्छन्ननुपलब्धिमात्रादर्थाभावं साधयन् स्वगृहाद् निर्गतः स्वगृहे पुत्रादीनामप्यभावमबगरछेत् । — अधिकरणासंनिकर्षाद् न तदवगम' इति चेत् । नीतीन्द्रियाश्रयस्याप्यसनिकर्षे तदभावाऽसिद्धेहतं चार्वाकमतम् , अधिकरणज्ञानमात्रादतीन्द्रियाभावसिद्धौ च प्रकृतेऽप्यधिकरणस्मृतिसत्त्वात् तदापत्तिः । तदुपलम्भकस्वभावेनानुपलब्धेस्तदभावसाधकरवं त्वसंभवदुक्तिकम् , स्वभावविरोधादिति न किञ्चिदेतत् । तदेवं प्रत्यक्षं न बाधकमित्युक्तम् ।।१३।। यवि प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण न होने से ही प्रमाणान्तर सिद्ध वस्तु का प्रभाष माना जायगा तो धर्म-अधर्भ आदि का भी अभाव हो जायगा और यह बात आस्तिकाभिमानी मीमांसकों की इष्ट नहीं है। [चार्वाकमत का निराकरण] अतीन्द्रिय वस्तु मात्र का उच्छेद करने के उद्देश से, अनुपलब्धि प्रत्यक्षाभाव मात्र से अर्थाभाव को सिद्ध करनेवाले विचारे चार्वाक को क्या कहा जाय, मत्र कि अपने घर से बाहर निकलने के बाद अपने पुत्रादि का प्रत्यक्ष न होने से अपने घर में अपने पुशदि का अभाव सिद्ध हो जाने की आपत्ति से वह पीडित है। __यदि यह कहा जाय कि-'घर से बाहर रहने के समय गृहरूप अधिकरण के साथ इन्द्रिय. सन्निकर्ष न होने से गृह में पुत्रादि के अभावसिद्धि की आपत्ति नहीं हो सकती, अत: तत्मयुक्तपीडा का उसे कोई भय नहीं हैं' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर अतीन्द्रियपदार्थ के आश्रय का सन्निकर्ष न होने से अतिन्द्रिय पदार्थ के अभाव की सिद्धि न होने के कारण चार्वाक का मत ही व्याहत हो जाता हैं । यदि अधिकरण के ज्ञान मात्र मे अतीन्द्रिय के अभाव की सिद्धि की जायगी तो अपने गृह से दूरस्थचार्वाक को गृहरूप अधिकरण की स्मृतिरूप शान से गृह में अपने पुत्रादि के अभाव की सिद्धि का प्रसङ्ग अपरिहार्य होगा। यदि यह कहा जाय कि-' तदुपलम्भकस्वभाव से अर्थात् जिस स्वभाव से जो वस्तु उपलम्भ योग्य होती है उस स्वभाव से उस वस्तु की अनुपलब्धि उत्त वस्तु के अभाष की साधक होती है, अतः उक्त आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि पुत्रादि का स्वभाव है इन्द्रियसनिकृष्ट होने पर उपलब्ध होना. अतः इन्द्रियसनिकृष्ट होने पर भी यदि पुत्रादि की उपलब्धि न हो तभी पुत्रादि के अभाव की सिद्रि हो सकती है, किन्तु चार्वाक के गृह से दूर रहने के समय इन्द्रियसनिकृष्ट होते हुये भी पुत्रादि की अनुपलब्धि नहीं है'-किन्तु यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि जिस स्वभाव से जो उपलब्धियोग्य होती है उसी स्वभाव से उस वस्तु की अनुपलब्धि द्वारा उस के अभाव की सिद्धि मानना असंभव है. क्योंकि उपलम्भकस्वभाव और अनुपलम्भकस्वभाव दोनों में विरोध है। अतः जिस स्वभाव से जो उपलब्धियोग्य है उस स्वभाव से उसकी अनुपलब्धि हो ही नहीं सकती। जैसे
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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