SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन अनुमानं तु तत्साधकमेवेत्याहधर्मादयोऽपि चाध्यक्षा ज्ञेयभावाद् घटादिवत् । कस्यचित् सर्व एवेति नानुमानं न विद्यते ||१४|| धर्मादयोऽपि च-ये परस्य चोदनागन्याः स्वतन्त्रसिद्धा वाऽजीवकार्यविशेषास्ते धर्मिणः, 'अध्यक्षा' इति साभ्यो धर्मः, ज्ञेयभावादिति हेतुः ज्ञेयत्वादित्यर्थः, घटादिवदिति दृष्टान्तः | साध्यहेतुविकल्पकृतदोषस्तु प्रसिद्धानुमानेऽपि तुल्यः । तथाहि-यदि पर्वतीयो वहिः साध्यते तदा साध्यविकलो दृष्टान्तः, अथ महानसीयस्तदा बाधः । एवं धूमे ऽपि यदि पर्वतीयो हेतुस्तदाऽनन्वयः, यदि च महानसीयस्तदाऽसिद्धता । सामान्योपग्रहोऽप्यतिविलक्षणव्यक्त्योरसंमवीति । यदि च बहनुमाने घटादि का स्वभाव है इन्द्रियसभिकृष्ट अधिकरण में इन्द्रियनिकृष्ट होने पर उपलब्ध होना, किन्तु इस स्वभाव से उस का अनुपदम्भ नहीं हो सकता, क्योंकि जब वह इन्द्रिय. सनिकृष्ट होगा तो उस समय उस का उपलम्भ ही होगा, अनुपलम्भ नहीं होगा। इस प्रकार इस कारिका में उक्त रीति से प्रत्यक्ष में सर्वज्ञसिद्धि में वाधकता की मसंभाव्यता बताई गई ||१३|| [ सर्वज्ञ का साधक अनुमानप्रयोग] १८वीं कारिका में यह बताया गया है कि अनुमान प्रमाण मर्यशसिद्धि में बाधक नहीं है किन्तु साधक ही है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है___अनुमान से भी सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। अनुमानप्रयोग इस प्रकार हो सकता है कि मीमांसकमत में वेद के विधिवाक्य से ज्ञात होने वाले अथधा स्वतन्त्र-अन्यमतानुसार वेद के बिना ही सिम होनेवाले अजीयकार्य विशेषरूप धर्म आदि पदार्थ प्रत्यश्नग्रास है क्योंकि संय है-ज्ञानविषय है. जो झय होता है वह प्रत्यक्षबाध होता है-जसे घट आदि। यदि इस अनुमान के विरोध में साध्य और हेतु का विकल्प प्रस्तुत कर इस प्रकार के दोष प्रदर्शित किये जाय कि-" उक्त अनुमान द्वारा धर्म आदि में जिस प्रत्यक्षणाचत्व की सिद्धि करनी हैं बह ६म लोगों के प्रत्यक्षग्राह्यत्वरूप है अथवा 'हमलोगों से भिन्न अतीन्द्रिय द्रष्टा पुरुष के प्रत्यक्ष में माद्यत्वरूप है। इन में प्रथम को साध्य करने पर बाथ होगा क्योंकि हम लोगों को धर्म का प्रत्यक्ष नहीं होता । एवं दूसरे को साध्य करने पर साध्याऽमसिद्धि होगी क्योंकि उक्तविध प्रत्यक्ष असिद्ध है। साध्य क. समान हेतु के सम्बन्ध में भी विकल्प हो सकता है। जैसे झेयत्यशब्द से प्रत्यक्षझान विषयत्वरूप हेनु विवक्षित है अथवा परोक्षशानविषयत्वरूप हेतु विधक्षित है। प्रथम में, पक्ष में हेतु के अभावरूप स्वरूपासिद्धि और दूसरे में अप्रयोजकत्व दोष है।" [बाधादि दोषों का निराकरण ] किन्तु इस प्रकार का दोषोद्भाबन उचित नहीं है क्योंकि इस प्रकार का दोषोभावन में भी संभव होने से अनुमानमात्र का उच्छेद हो जायगा । जैसे-धमहेत्र मे पर्वत में अग्नि का अनुमान प्रसिद्ध अनुमान है। इस में भी इस प्रकार दोषोदभावन हो सकता है कि इस अनुमान में यदि पर्वतीय अग्नि को साध्य किया जायगा तो पाकशालारूप रष्टान्त में साध्यबैकल्य होने से हेतु में साध्य का न्याप्तिग्रह न हो सकेगा और यदि पाकशालीय अग्नि को साध्य किया जायगा तो पर्वतरूप पक्ष में साध्य का बाध होगा | इसी प्रकार हेतु के सम्बन्ध पतिर
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy