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[ शासवार्ता० स० १०/१४ .
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पक्ष दृष्टान्त-हेतु-साध्यव्यक्त्योरत्यन्तवलक्षण्याननुभवात् सामान्योपग्रहेणैव दोषोद्धारः, व्याप्सिबलात् सामान्यसिद्धावपि पक्षधर्मताबलाद् नियतविशेषसिद्धेरित्युपगम्यते, तदा प्रकृतेऽपि तुल्यम् । न चात्राsप्रयोजकत्वम् , विपक्षबाधकताभावादिति वाच्यम् , 'ज्ञानं साश्रयम् , गुणत्वात्, रूपादिवत् इत्यादाविव बाधकाभावे निरुपाधिसहचाररूपस्यैव सर्कस्य सत्त्वात् , अन्यथेशानुमानसहस्रोच्छेदात् । यदि चात्र गुणाऽऽश्रययोः कार्यकारणभाव एव परम्परया तर्कः, तदा प्रकृतेऽपि धर्माधध्यक्षज्ञानयोः स एवाश्रीयताम् , विना सर्वज्ञं धर्माद्यपरिज्ञानस्यान्यतो व्यवस्थापयिष्यमाणत्वात् । में भी विकल्पमूलक दोष होगा। जेसे-पर्वतीय भ्रूम को हेतु करने पर अन्यय दृष्टान्त में हेतु का अभाव होने से व्याप्तिज्ञान की अनुपपत्ति होगी और पाकशाला के धूम को हेतु करने पर पक्ष में हेतु की असिद्धि होगी। समस्त अग्नि और समस्त धूम का सामान्यरूप से ग्रहण करके भी उक्तवोप का परिहार संभघ नहीं होता क्योकि विभिन्न अग्नि एवं विभिन्न धूम दोनों अत्यन्स बिलक्षण हैं और अत्यन्त विलक्षण व्यक्तियों का कोई अनतिप्रसक्त सामान्यधर्म नहीं होता।
यदि यह कहा जाय कि-"पर्वत में पाकशाला के दृष्टान्त के द्वारा जब धूम से अग्नि का अनुमान किया जाता है तब उस में उक्तरीति से दोष नहीं हो सकता क्योंकि उस अनुमान से सम्बद्ध पश, दृष्टान्त, हेतु और साध्य व्यक्तियों में अत्यन्त वैलक्षण्य का अनुभव नहीं होता। अतः पर्वतत्वरूप सामान्यधर्म से सभी पर्वतों को पक्षरूप से, पवं सभी पाकशाला को पाकशा. लात्वरूप सामाग्यधर्म से दृष्टान्तरूप से प्रस्तुत किया जा सकता है। एव मभी अग्नि को अग्नित्वरूप सामान्यधर्म से साध्यरूप में और सभी धूम को धूमत्वरूप सामान्यधर्म से हेतुरूप में ग्रहण कर उक्त दोषों का परिहार किया जा सकता है। व्याप्तिबल से सामान्यरूप से ही साध्य की सिद्धि होने पर भी पक्षधर्मताबल से पर्वत में पर्वतीयअग्निरूप विशेषसाध्य की सिद्धि हो सकती है।
कहने का आशय यह है कि उक्त अनुमान में अग्नित्वरूप सामान्य धर्म से अग्नि को साध्य करने पर पाकाशाला में पर्वतीयअग्नि का अभाव होने पर भी अग्नि सामान्य का अभाष न होने से दृष्टान्त में साध्यवैकल्य नहीं हो सकता, एवं पर्वत में पाकशालीय अग्नित्वावच्छिन्न का अभाव होने पर भी अग्नि सामान्य का अभाष न होने मे बाध नहीं हो सकता। एवं धूमत्वरूप सामान्य धर्म से धूम को हैतु करने पर पाकशाला में पर्वतीय श्रुम का अभाष होने पर भी धूमसामान्य का अभाव न होने से पाकशाला दृशान्त में साधनधैकल्य नहीं हो सकता । पर्व पर्वत में पाकशालीय धूमाभाव के होने पर भी धूमसामान्य का अभाव न होने से पक्ष में हेतु की अमिद्धि भी नहीं हो सकती । धूमसामान्य से अग्निसामान्य का अनुमान करने पर यह भी शङ्का नहीं हो सकती कि-'पर्वत में अनुमान द्वारा अग्निसामान्य की सिद्धि होने पर भी पर्वतीयअग्नि की सिद्धि कैसे हो सकती है?' क्योंकि अग्निसामान्य के अनुमापक द्वारा पर्वत में पवतीयअग्नि से भिन्न अग्नि के बाधज्ञानरूप पक्षधर्मता के बल से पर्वत में पर्वतीयमग्नि की सिद्धि निधि है।"
तो हम भी कह सकते है कि जिस ढंग से प्रसिद्ध अनुमान में साध्य और हेतु के यिकला मे संभावित दोषों का निराकरण किया जाता है उस ढंग से धर्म भादि में प्रत्यक्षत्व साधक अनमान में भी साध्य-हेन के विकल्प से संभावित दोगेका परिहार किया जा सकता है। अर्थात् यह कहा जा सकता है कि प्रत्यक्षत्वरूप सामान्य धर्म से घटित प्रत्यक्षविषयत्य को