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________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [३७ ईशप्रत्यक्षाश्रयं परिशेषयन्नाह-कस्थचिदिति, अस्मंदादीनां बुद्धादीनां च छद्मस्थत्वात् , दृष्टेष्टविरुद्धभाषित्वाच्चाईत्येव धर्मादिसाक्षात्कर्तृत्वविश्रामादिति भावः । तेन न साध्याऽसिद्धिः, इष्टाऽसिद्धिर्चा, साध्यकोटौ विशिण्याऽनिवेशात् , परिशेषस्य विशेषपर्यवसायित्वाञ्चेति दृष्टव्यम् । सर्वज्ञवादिभिरपि कश्चित् सर्वज्ञः कतिपयेष्टार्थवेद्येवाभ्युपगम्यते न तु विश्वदृष्टा, यदुक्तम्-(प्र.वा.१।३३) "सर्व पश्यतु बा, मा वा, तत्वमिष्टं तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः कोपयुज्यते ? ॥१॥" तथा "सर्व पश्यतु वा, मा वा, इष्टमर्थ तु पश्यतु । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेतान् गृध्रान् प्रपूजय ॥१॥” इति । (द. प्र. वा. १।३५) साध्य और ज्ञानस्वरूए सामान्यधर्म से घटित ज्ञानविषयत्व को हेतु करने से उक्त दोष नहीं हो सकते। यदि यह कहा जाय कि प्रत्यक्षाय के साधनाथं प्रयक्त क्षेयत्यहेत अप्रयोजक है क्योंकि आदि झेय होते हये भी अप्रत्यक्ष लो' इस विपरीत पक्ष का बाधक कोई तर्क नहीं है। तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे ज्ञान के आश्रयरूप में आत्मा को सिद्ध करने के लिये प्रयुक्त-शान न्याश्रित है क्योंकि मूल्याश्रित रूप आदि के समान गुण है'-स अनुमान में ज्ञान में द्रव्याश्रितत्व का जाधकोने से गुपयरे व्रत्याश्रितत्र का निरुवाधिक सहचार ही तर्क होता है उसी प्रकार प्रस्तुत अनुमान में भी धर्म आदि में प्रत्यक्षत्वबाधप्रामाणिक न होने से झेयत्व में प्रत्यक्षत्व का निरूपाधिक सहमार ही तर्क हो सकता है । यदि निरुपाधिक सहचाररूप तर्क की उपेक्षा की जायगी तो पेसे हजारों अनुमानों का उच्छेद हो जायगा । ___ यदि यह कहा जाय कि 'गुणत्व से न्याश्रितत्य के अनुमान के लिए गुणत्व में द्रव्यानितस्थ का जो व्याप्तिान अपेक्षित है उस में गुण और आश्रय का कार्यकारणभाव ही परम्परया तर्क है। आशय यह है कि गुण यदि द्रव्याश्रित न होगा तो द्रव्यजन्य नहीं हो सकता इस लिप गुण में द्रव्यानितन्य आवश्यक होने से गुण में द्रव्याश्रितत्व की विरोधी व्यभिचारशङ्का निवृन हो जायगी तो ऐसा कथन ज्ञेयत्वहेतु से धर्मादि के प्रत्यक्षत्वानुमान के सम्बन्ध में भी सम्भव है। जैसे यह कहा जा सकता है कि यदि धर्म आदि का द्रष्टा कोई सर्थश न होगा तो धर्म आदि का भी ज्ञान नहीं हो सकता है, यह बान अन्य हेतु से आगे सिद्ध की जाने वाली हैं। । [सर्वग्राहि प्रत्यक्ष के आश्रयरूप में सर्वज्ञ की प्रसिद्धि ] २४ थीं कारिका के उत्तरार्ध में जैनसम्मत सर्वज्ञ के साधक परिशेषानुमान का मंकेत किया गया है। जिस का आशय यह है कि-धर्म आदि पदार्थं किसी पुरुष को प्रत्यक्ष से सिद्ध है। किसी पुरुष' से तात्पर्य है सामान्य जीव से एवं युद्ध आदि से भिन्न पुरुष । कहने का तात्पर्य यह है कि उक्त अनुमान से धर्म आदि सब पदार्थों का ग्राहक प्रत्यक्ष सिद्ध हो जाने पर यह प्रत्यक्ष किमी पुरुषविशेप में आश्रित है क्योंकि वह शान है। इस अनुमान मे उक्त प्रत्यक्ष पुरुषाधित होकर सिद्ध होता है, वह प्रत्यक्ष विशिष्ट कोटि का होने से सामान्य
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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