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[शास्त्रवाक स्त० ११/८ वसीयते, व्यवहारपूर्व तस्याऽवस्तुत्वात् , इन्द्रियाणां च यस्तुविषयत्वात् । न चान्यव्यावृत्तं स्वलक्षणमुपलभ्य शब्दः प्रयोक्ष्यते, अन्यापोहादन्यत्र शब्दवृत्तेः प्रवृत्त्यनभ्युपगमात् ; नाप्यनुमानेनापोहाध्यवसायः; न चान्वयविनिमुहा प्रवृतिः, 'शब्द-लियो: ' इत्यादिना तत्प्रतिषेधात्' इति; सदस्यत एव निरस्तम् , स्वलक्षणात्मनोऽपोहस्येन्द्रियैरेव गम्यत्वात् , अर्थपतिबिम्बात्मनश्च परमार्थतो बुद्धिस्वभावत्वेन स्वसंवेदनप्रत्यक्षत एव सिद्धेः, प्रसध्यपतिषेधात्मनोऽपि सामर्थ्यगम्यत्वात् ।
* यदपि 'इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेरपोहे संकेतोऽशक्यक्रियः; तथाहि-अगोव्यवच्छेदेन गोः पतिपत्तिः, स चागौगोनिषेधात्मा, तन्न मा निषेभ्यो गौतिव्यः, अनितिस्वरूपस्य निषेद्धुमशक्यस्वात् ; एवं च गोरगोप्रतिपतिद्वारा प्रतीतिः, अगोश्च गोप्रतिपतिद्वारा, इति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् , प्रतीते च प्राग गवि किमपोहेन ?, अप्रतीते च कथं तत्प्रत्ययः ? इति । तदाह—[ श्लो० या० अपोह ० ८३-८४] "सिद्धश्वागौरपोोत गोनिषेधात्मकश्च सः । तत्र गौ रेव वक्तव्यो नया यः प्रतिषिध्यते ॥१॥
अपोह के विरुद्ध जो दूसरी बात यह कही जाती है कि- जसे स्वलक्षण वस्तु में शब्द का सङ्केत सम्भव न होने से वह शब्दार्थ नहीं होता उसी प्रकार अपोह में भी सङ्केत सम्भव न होने से वह भी शब्दार्थ नहीं हो सकता क्योंकि निश्चित अर्थ में ही शब्द का सङ्केत होता है और अपोह का निश्चय किसी को भी इन्द्रिय द्वारा नहीं होता, क्योंकि शन्दव्यवहार के पूर्व यह अशात होने से अवस्तु होता है और इन्द्रियों वस्तु-सत् को ही ग्रहण करती है। यदि बौद्ध यहाँ बचाव करे कि-'अन्य व्यावृत्तस्यलक्षण की प्रत्यक्ष उपलब्धि होती हैं। अत: इस उपलब्धि के आधार पर उसमें शब्द का प्रयोग हो सकेगा' - तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि अन्यापोह से भिन्न में शब्द की प्रवृत्ति नहीं होती। अनुमान से सभी अपोह का निश्चय नहीं हो सकता क्योंकि अन्वय अध्यभिचार के बिना आनुमानिक प्रतिपत्ति नहीं होती और अन्वय का निधेष "शब्द-लिङ्गयोः प्रामाण्यं न सम्भवति" आदि शठमों से कर दिया गया है।" वह बात भी इस लिए निरस्त हो जाती है कि अन्यव्यावृत्त स्वलक्षणात्मक अपोह का ग्रहण इन्द्रिय द्वारा होता है और अर्थ प्रतिबिम्वरूप अपोह का ग्रहण उसके बुद्धिस्वरूप होने से स्वसंवैदि प्रत्यक्ष से सिद्ध है और प्रसध्यप्रतिषेधरूपअपोह सामर्थ्य द्वारा गम्य है ।
[ अपोह मान्यता में अन्योन्याश्रय-कुमारील का पूर्वपक्ष ] अगोह के विपक्ष में पर्वपक्षी अब विस्तार से यह कहते है कि-अन्योन्याश्रय दोष के कारण अपोह - गोट्यावृत्त आदि में सङ्केत होना शक्य नहीं है : जसे-अपोहपक्ष में मो का अगोभिन्नरूप में शान होना है और अगो गोभिन्नरूप होने से उसका शान गोभेद के प्रतियोगीभूत गो के शान के अधीन है। यतः अभावशान में प्रतियोगीशान कारण होने से अज्ञात प्रनियागी के निषेध का बोध अशक्य है। इस प्रकार गोज्ञान के लिए अगोशान की और के अगोशान के लिए गोशान की अपेक्षा होने से अन्योन्याश्नय स्पष्ट है। इस दोष से मुक्ति पाने लि. यदि अगोशान के बिना भी मो की प्रतीति मान ली जायगी तो अमेह की कल्पना * अस्य दूरेण तदपि न ' पदैः २४७ पृष्ठे शेयोऽन्वयः ।