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________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विषेचन ] [ २४५. स चेदगोनिवृत्त्यात्मा भवेदन्योन्यसंश्रयः । सिद्धश्चेद् गौरपोहार्थं वृथाऽपोहप्रकल्पनम् ॥ २ ॥ गव्यसिद्धे त्वगौर्नास्ति तदभावेऽपि गौः कुतः । " ( ८५ पूर्वार्धम् ) इति । अपिच, एवं नीलोत्पलादिशब्दानामर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टार्थाभिनायकत्वमपि दिङ्नागोक्तं विरुद्धमेव, अनीलानुत्पलादिव्यवच्छेदरूपतयाऽभावैकरूपाणां नीलोत्पलाद्यर्थानामाधाराधेयभावाद्यनुपपत्तेः, तदुक्तम् - " नाधाराधेयवृत्त्यादि संबंधश्चाप्यभावयोः " ( श्लो० १० वा० अपोह० ८५ उत्तरार्ध ) इति । न चानीला - ऽनुत्पलाभ्यां व्यावृत्तं वस्त्वेवार्थान्तरनिवृत्या विशिष्टमुच्यत इति युक्तम् ; स्वलक्षणस्याऽचाच्यत्यात् । न च स्वलक्षणस्यान्यनिवृत्त्या विशिष्टत्वमपि युज्यते, वस्त्ववस्तुनोः संबन्धाभावात्, वस्तुद्वयाधारत्वात् तस्य । भावेनिनीकादिबुवाको हात्यात विशेषतायोगात् । ज्ञातं सचत् स्वाकारानुरक्तबुद्धिं जनयति तस्यैव विशेषणत्वात् । न चेदमपोहे युज्यते प्रागज्ञानात् स्वाकार सार्थक न होगी । और यदि अगोशान के पूर्व गो का ज्ञान न होगा तो उसके बिना अगो का भी ज्ञान सम्भव न हो सकेगा। जैसा कि श्लोकवार्त्तिक में कहा गया है कि " अगो के सिद्ध ज्ञात होने पर ही उसका अपोहन भेदप्रतियोगी रूप से बोधन हा सकता है, किन्तु arrt गोनिषेधात्मक = गोभिन्नरूप है। अतः गो का बोध आवश्यक है, क्योंकि उसके होने पर दीन से गो का प्रतिषेध हो सकता है। इससे यह निर्विवाद है कि यदि गो अगोध्यावृत्ति रूप है तो अन्योन्यालय अनिवार्य है और यदि गो अगोशान के बिना भी ज्ञात हो सकता है तो उसके लिए अपोह की कल्पना व्यर्थ है । गो के अज्ञात होने पर अगो का ज्ञान और अमो के अज्ञात होने पर गो का ज्ञान कैसे सम्भव हो सकता है यह प्रश्न ही है । [ अर्थान्तर निवृत्ति विशिष्टार्थ वाचकता असंगत ] विनाग का यह कथन भी कि -' नीलोत्पल आदि शब्द अर्थान्तर अनील और अनुत्पल की निवृत्ति से विशिष्ट अर्थ के वाचक हैं' असङ्गत ही है क्योंकि नील भनीकन्यावृत्त और उत्पल अनुत्पव्यावृत्त स्त्ररूप होने से अभावरूप है। अतः नील और उत्पल पदार्थ में आधाराधेयभाव अनुपपन्न है, जैसा कि श्लोकबार्तिक में कहा गया है कि 'अभावों में आधाराधेयभाव आदि सम्बन्ध अशक्य है। यदि यह कहा जाय कि -' अनील और अनुत्पल से भिन्न वस्तु ही अर्थान्तर निवृत्ति भनीयावृति और अनुत्पलच्यावृत्ति से विशिष्ट होने से नील पत्र उत्पल शब्द से बाच्य है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि स्वलक्षण वस्तु वाध्य नहीं होती और स्वलक्षण अन्यनिवृत्ति से विशिष्ट भी नहीं होता है; क्योंकि स्वलक्षणात्मकवस्तु और अन्यनिवृत्यात्मक अवस्तु के मध्य सम्बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि सम्बन्ध दो भावात्मक वस्तुओं में ही आधारित होता है। और यदि स्वलक्षणवस्तु और अर्थान्तर निवृत्ति के मध्य आधाराधेयभाव मान भी लिया जाय तो भी नीलवस्तु की बुद्धि द्वारा अपोह का ग्रहण न होने से वह विशेषण नहीं हो सकता, क्योंकि 'जो ज्ञात हो कर अपने आकार से अनुरक्त बुद्धि का जनक' होता है वही विशेषण होता है और यह अपोह में सङ्गत नहीं है क्योंकि ज्ञान होने के पूर्व उसके आकार से अनुरक्त बुद्धि का जन्म नहीं हो सकता और उससे विशेष्य का उपरञ्जन - विशिष्टीकरण भी नहीं हो सकता, क्योंकि भाव और अभाव में विरोध होने से अभाव के आकार से भाग का आकारित होना युक्तिसङ्गत नहीं है । ار
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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