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________________ [ २४३ << तदुक्तम् - [ चत्वार आधा त० सं० १०४५ तः १०४८, पंचमश्च प्र० वा० ३-८६ ] ताश्च व्यावृतयोऽर्थानां कल्पना शिल्पिनिर्मिताः । नापोला -ऽऽवारभेदेन भिद्यन्ते परमार्थतः ॥ १ ॥ तासां हि बाह्यरूपत्वं कल्पितं न तु वास्तवम् । मेदाभेदौ च तत्स्वेन वस्तुन्येव व्यवस्थितौ ॥ २ ॥ स्वबीजनेकविश्लिष्टवस्तुसंकेतशक्तितः । विकल्पास्तु विभिद्यन्ते तद्रूपाध्यवसायिनः ॥ ३ ॥ नैकात्मनां प्रपद्यन्ते न भिद्यन्ते च खण्डशः । स्वलक्षणात्मका अर्था विकल्पः gad त्वसौ || ४ | संसृज्यन्ते न भिद्यन्ते स्वतोऽर्थाः पारमार्थिकाः । रूपमेकमनेकं वा तेषु बुद्धेरुपल्लवः ॥ ५ ॥ इति ॥ स्या. क. टीका- हिन्दीविषेचन ] T N , . L यदपि ' अपोहस्य प्रतिपाद्यत्वे शब्द - लिङ्गयोः प्रामाण्यं न स्यात् प्रतिपाद्याऽव्यभिचारितेन हि तयोः प्रामाणम् प्रतिदाहो निःस्वभाव:, इति क्व तयोरव्यभिचारित्वम् ? इति तदपि न वस्तुभूतसामान्याभावेऽपि विजातीयव्यावृत्तस्वलक्षणमात्रेणान्वयोपपत्तेः, अविवक्षितमेदस्य स्वलक्षणस्यैव सामान्यलक्षणत्वात् । यदपि यथा स्वलक्षणादिषु समयाऽसंभवाद् न शब्दार्थत्वं तथाऽपोहेऽपि । अर्थ निश्चित्य हि समयः कर्तुं शक्यते न चापोह : केनचिदिन्द्रियेःका परस्परभेद् काल्पनिक है उसके लिए अपोहनीय आधार का भेद मानना अनावश्यक है । सत्य यह है कि विकल्प यानी विशिषानुभव से उत्पन्न वासनाये अनादि हैं। उन्हीं के भाधार पर माने जाने वाले विभिन्न वस्तुओं में विभिन्न संकेत होते हैं और उन संकेतों से ही विकल्पों का जन्म होता है । जैसा कि तस्त्रसंग्रह में कहा गया है-" अर्थों के अन्यव्यावृत्तिरूप विभिन्न अपोह केवल कल्पना निर्मित हैं, उनका परस्पर भेद अपोहनीय आधार के पारमार्थिक भेद की अपेक्षा नहीं करता है। अन्य व्यावृत्तियों में जो बारूपता ज्ञात होती है वह भी कल्पित है वास्तव नहीं। जबकि भेद और अभेद वास्तव में वस्तु में ही अभ्युपगत है। अपने सहज अनादिविकल्पवासनारूप बीज, अनेक से व्यावृत्त वस्तु और संकेत, इन सभी के सामर्थ्य से ध्यावृत वस्तु के अध्यवसाय विकल्प ही परमार्थतः भिन्न होते हैं। अभेदाध्यवसायी या भेदाध्यवसायी विकल्पों से स्वलक्षणात्मक अर्थों में भेद नहीं पड जाता किन्तु विकल्प ही भेदानुभव करता है । कि में भी कहा है- " वस्तुभूत गर्थ न तो परस्पर संसृष्ट होते हैं और न भित्र ही होते हैं। उनमें प्रतीयमान एकरूपता किंवा अनेकरूपता केवल विकल्पात्मक बुद्धि की ही देन है । 13 ܕ [ शब्द और लिंग के अप्रामाण्य की आपत्ति निरवकाश ] अपोह के विरुद्ध जो यह बात कही जाती है कि "अपोह को प्रतिपाथ मानने पर शब्द और लिङ्ग के प्रामाण्य का व्याघात होगा क्योंकि वे दोनों अपने प्रतिपाद्य का अन्यभिचारी होने से ही अपने प्रतिपाद्य के विषय में प्रमाण होते है। अपोह नि:स्वभाव है, अतः इसमें शब्द एवं लिङ्ग का अव्यभिचार नहीं हो सकता, क्योंकि अभ्यभिचार किसी स्वभावोपेत वस्तु में ही होता है" वह भी ठीक नहीं है। वस्तुभूत सामान्य के न होने पर भी विज्ञातीयव्यावृत्त] स्वलक्षणात्मक वस्तु अन्य -अध्यभिचार की उपपत्ति हो सकती है क्योंकि वस्तुभूत सामान्य के मान्य न होने पर भी परस्पर भिन्न रूप में अविवक्षित अन्यव्यावृत्तस्वलक्षणात्मक वस्तुरूप सामान्य बौद्ध को भी मान्य है। अतः सामान्य के द्वारा स्वलक्षणात्मक वस्तु में शब्द और लिङ्ग के अभ्यभिचार की उपपति हो सकती है ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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