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स्या. क, टीका-हिन्दीविवेचन ]
बहूनामुपायानां मध्य एकोऽप्यनलसस्य कृतिसाध्यो न भवतीति नहि-नैव, मुक्त्वा तदुपायम् अन्यत्र-अन्योपाये प्रवर्तते ॥ ४४ ।। न चासौ तत्स्वरूपनो योऽन्यत्रापि प्रवर्तते । मालतीगंधगुणविद् दर्भे न रमते ह्यलिः || ४५ ॥
यस्त्वन्यत्र प्रवर्तते नासौ तम्तमान एवेत्माट.-.
न चासौ तत्स्वरूपज्ञा तत्त्वतश्चिन्तामणिरत्नम्वरूपज्ञः, योऽन्यत्रापि चिन्तामणिव्यतिरिक्तोपायेऽपि, तदुपायं मुक्त्वा प्रवर्तते । प्रनिवस्तू पमया समर्थयत्ति-मालतीगन्धगुणवित्=जातिकुसुमसौरभज्ञः अलिः अमरस्तियक्सत्त्वोऽपि हि-यतः दर्भ-तृणविशेषे न रमते; किमुतान्यः ! एवं न भवतीत्यभिप्रायः ।। ४५ ।।
प्रधानपुरुषार्थमङ्गीकृत्योभयोपयोगमाहमुक्तिश्च केवलज्ञान-क्रियातिशयजैव हि। तद्भाव एव तद्भावात्तदभावेऽप्यभावतः ॥४६।।
मुक्तिश्चप्रधानपुरुषार्थरूपा केवलज्ञान-क्रियातिशयजैव हि-उभयनिवन्धनव, नानुभयनिबन्धनिकेत्यर्थः । कुतः ! इत्याह-तद्भाव एव-केवलज्ञान-शैलेशीकियाभाव एवं तद्भावातमुक्युत्पादात् तदभावेऽपि केवलज्ञान-शैलेश्यन्तराभावेऽपि अभावात मुक्त्यनुत्पादात्, उभयोर्निय
उपाय आलस्यहीन मनुष्य की कृति से साध्य न हो । अतः वह चिन्तामणि के प्रापक उपाय को छोडकर किसी अन्य उपाय में नहीं प्रवृत्त होता ।। ४४ ।।
जो व्यक्ति अन्यत्र-यानी चिन्तामणि से भिन्न उपाय में प्रवृत्त होता है वह चिन्तामणि रन के स्वरूप को नहीं ही जानता है, यही बात ४वी कारिकामें कही गयी है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है____जो मनुष्य चिन्तामणि प्राप्ति के उपाय को छोड़कर अन्य उपाय में प्रवृत होता है वह वास्तव में चिन्तामणि रत्न के स्वरूप को नहीं जानता । यह बात कारिका के उत्तरार्ध मेंप्रतिवस्तूपमालकार से समर्थित की गयी है। जिसका आशय यह है कि मालती पुष्प की सुगन्ध को अनुभव करने वाला भ्रमर जैसा तिर्यच प्राणी भी उसे छोडकर कुश जैसे निर्गन्ध तृणों में जब नहीं रमता तो फिर ज्ञानी मनुष्य श्रेष्ठतम उपाय को छोडकर उपायान्तर में कैसे भलग्न हो सकता है । आशय यह है कि ऐसा नहीं होता ।। १५ ।।
४६वीं कारिका में प्रधान पुरुषार्थ के सम्बन्ध में ज्ञान क्रिया दोनों के उपयोग का वर्णन है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है
मुक्ति यह धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुम्बार्थों की अपेक्षा श्रेष्ठ होने से परम पुरुषार्थ है, और वह केवलज्ञान और सातिशय क्रिया इन दोनों से ही उपलब्ध होती है । दोनों में किसी एक का भी अभाव होने पर नहीं होती, क्यों कि केवलज्ञान और शैलेशी क्रिया दोनों के होने पर ही मुक्ति का लाभ होता है । केवलशान और शैलेशी क्रिया में किसी एक का अभाव होने पर भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती । मुक्ति में दोनों को अन्वय-म्यतिरेक नियन अनुविधान