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[शाखाक स्त० ११/४७-४८ तान्वय-व्यतिरेकानुविधानेऽप्यन्यतरेणान्यतराऽसिद्धौ चाऽविनिगमादितिभावः ॥ ४६ ।।
तन्त्रान्तरीया अपि मध्यस्था इत्थमेवाऽऽस्थितवन्त इत्याहन विविक्तं द्वयं सम्यगेतदन्यैरपीप्यते । स्वकार्यसाधनाभावाद्यथाह व्यासमहर्षिः ॥ ४७ ।।
न विविक्तम् अन्यतराऽसंयुक्तम् एतद्द्वयम् अन्यरपि-तन्त्रान्तरीयैरपि सम्यगिप्यते । कुतः ! इत्याह-स्वकार्यसाधनाभावात् , कार्याऽसाधकस्य चाऽसम्यक्त्वात् । संवादमाह-यथा व्यासमहर्षिः 'बठरश्च तपस्वी च शू रश्वाप्यकृतवणः । मद्यपा स्त्री सतीत्वं च गजन् ! न श्रदधाम्यहम् ॥४८॥
होने पर भी किसी को कारण मानकर-तूसरे को अन्यथासिद्ध नहीं माना जा सकता। क्यों कि इस में कोई विनिगमक नहीं है कि दोनों में कौन कारण हो और कौन अन्यथा सिन्द्र हो ? ॥ ४६ ॥
७वीं कारिका में यह बात कही गयी है कि अन्य शास्त्रों के अभिश मध्यस्थ पुरषों की भी ऐसी ही आस्था है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है
अन्य शास्त्रवेत्ता भी ज्ञान और क्रिया दोनों को एक दूसरे से निरपेक्ष रहकर सम्यकफल का साधक नहीं मानते । क्यों कि जो अपने कार्य का साधक नहीं होता बह पास्तव में असम्यक-अकारण होता है, मर्षियास ने भी ऐसा ही कहा है ॥ १६ ॥
राजा को सम्बोधित कर व्यासजी का कहना है कि मूख के तपस्थी होने में, पहले आघात आदि से यरव्यहीन वीर होने पर भी घात्र रहित होने में, चितभ्रमकारी मद्य का पान करने वाली स्त्री के पतिता होने में, उनका विश्वास नहीं है । क्यों कि मूखन्य और तपस्वित्य आदि में शीत उष्ण स्पर्श के समान परस्पर विरोध है।
[ ज्ञान में अन्यथासिद्धि की शंका का निरसन] शङ्का होती है " कि फलविशिष्ट में दी कारणता का ध्यवाहार होने पर भी फलोपहितत्व रूप से कारणता नहीं मानी जा सकती, क्योंकि फलोपहितत्व फल की उपधापकना-उत्पादकता रूप होने से कारणता रूप दी है अतः उसको कारणता का अचछेदक मानने में आत्मा अपदोष है। कुत्रवत्व से पवं भेदविशेष से यानी अकार पर व्यक्ति-भेद कूट रूप से भी कारणता नहीं मानी जा सकती। क्योंकि उन रूप से फर-कार्य में कार णत्वेन अभिमत वस्तु के अन्वय और व्यतिरेक के अनुविधान का ज्ञान नहीं होता । अतः सम्यक प्रवृत्तित्व रूप से फलमाप्ति की कारणता मानना उचित है । ज्ञान प्रवृत्ति का जनक होने से फन.सिद्धि के प्रति अन्यथा मिद्ध हैं," -किन्तु यह शङ्का असङ्गत है। क्योंकि रस्न का वाणिज्य आदि कर्म ही विशिष्ट धन आदि फल की प्राप्ति का हेतु है । सम्यकशान और प्रवृत्ति का धनप्रापक वाणिज्य आदि कर्म में समान व्यापार ई । यही कारण है जिस से धन के व्यापारी शक्तिसम्पन्न पुरुषों में पाण्डित्य के प्रयोग क सभ्यशान का अभाव होने पर भी रत्न वाणिज्य आदि कर्म के प्रयो. जक सम्यकूशाम होने से कर्म के प्रति सम्यकशान और प्रवृत्ति को सत्र्यापार मानने में कोई क्षति नहीं होती । यदि यह बात न मानी जायगी तो सानवादी की ओर से यह कहा जा सकेगा कि प्रवृत्तिगत सम्यक्त्व कलावच्छिन्नन्यरूप होने से उसे तुता का अपनछेदक नहीं माना जा सकता, और यदि सम्यक् ज्ञानपूर्वक प्रवृत्तित्व रूप से कारणता मानी जायगी तो