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________________ स्पा. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] वरश्च मूर्खश्च तपस्वी च = उत्कृष्टतपःकारी च शूश्वापि प्रथमप्रहारादिवच्व्हीनश्चापि अकृतव्रण: = अनिर्मितक्षतः तथा मद्यपा = चित्तश्रमहेतुमद्यभोगवती स्त्री सतीत्वं च पतिव्रतात्वं च; तत्र राजन ! न श्रदधाम्यहमेतत् शीतोष्णस्पर्शादिवत् परस्परविरुद्धत्वाद् वटरस्वतपस्वित्वादीनामिति भावः । ननु फलोपहित एव तत्त्वतो हेतुत्वव्यवहारेऽपि फलोपहितम्बेन न हेतुता, आत्माश्रयात् नापि कुर्वद्रूपत्वेन भेद या तेन रूपेणान्वयन्तु सम्यकमवृत्तित्वेनैव फलासहेतुता, ज्ञानं तु प्रवृत्तिजनकतयाऽन्यथासिद्धमिति चेत् ? न, रत्नवाणिज्यादिकर्मण एव विशिष्ट घनादिफलप्राप्तिहेतुत्वात् सम्यग्ज्ञानप्रवृत्त्योस्तु तत्र तत्र कर्मण्येव तुल्यबद्व्यापारात् । अत एव धनव्यापारवतामीश्वराणां पाण्डित्यप्रयोजक सम्यग्ज्ञानाभावेऽपि रत्नवाणिज्यादिप्रयोजकसम्यग्ज्ञानसत्त्वाद् न क्षतिः, अन्यथा फलावच्छिन्नत्वरूपप्रवृत्तिसम्यक्त्वस्य हेतुतावच्छेदकत्वायोगात् ; सम्यग्ज्ञानपूर्वकमवृत्तित्वेन हेतुत्वेत्वावश्यकत्वाज्ज्ञानस्यैव हेतुत्वमिति ज्ञाननयेन वक्तुं शक्यत्वात् चारित्रस्य तु प्रवृत्तिरूपस्यैवाधिकृत फल हेतुकर्मत्वात् । तत्रज्ञान - क्रिययोर्द्वार - द्वारिभावेन फल - हेतुत्वं निराबाधम् । एतेन ' मन्त्राद्युपयोगादेव केवलाद् वनितादिफलमाप्तेः क्रियाया अकिञ्चित्करत्वम् ' इति ज्ञाननयोक्तो दोषो निरस्तः, तत्र वनिताद्यागमनस्यैव वनितादिप्राप्तिहेतुत्वात् तत्र च मन्त्रोपयोगवत् परिजपनादिक्रियाया अपि हेतुत्वात् । तदाह माव्यकारः- [वि. आ. मा. ११४० ] 'परिजवणाई किरिया मंतेसु वि साहणं ण तम्मत्तं । तन्नाणओ अन फलं तन्त्राणं जो मक्किरिये ॥ १ ॥ अथ परिजनमपि धारावाहिकं मन्त्रज्ञानमेव, न तु बाळ्यापाररूपा क्रियाऽपि तूष्णीं मन्त्र जपतामपि फलसिद्धेः । न चाकियत्याकाशवत् कार्यजनकत्वमसंगतमिति वाच्यम् ; क्रियायाः संयोग- , 2 ८८ 3 [ २९९ ܕܕ कारणतावच्छेदक के गर्भ में प्रविष्ट होने से आवश्यक होने के कारण ज्ञान को ही कारण मानना उचित है | चारित्र तो प्रवृतिरूप है, अतः वह अभीर फल का हेतुभृत कर्म ही है । उसके प्रति ज्ञान और क्रिया में द्वार और द्वारीरूप से अर्थात् द्वार होने से किया में और शारी होने से ज्ञान में फल की कारणता निर्बाध है । [ मन्त्रप्राप्य फल में भी उमयहेतुता निर्वाध ] इस संदर्भ में ज्ञानवादी द्वारा यह दोष दिया जाता है कि मन्त्र आदि के उपयोग मात्र से ही स्त्री आदि फल की प्राप्ति होती है अतः फलप्राप्ति में किया अकिश्चित्कर है, ।' किन्तु यह दोष पूर्वक्ति विचार के आधार पर निरस्त हो जाता है । यतः स्त्री आदि का आगमन ही उस की प्राप्ति का हेतु है । आगमन में मन्त्रोपयोग के समान मन्त्रजप की क्रिया भी हेतु है । यह बात भाष्यकार ने भी कही है जैसे " मन्त्र आदि से साध्यफलों में मन्त्रजप आदि क्रिया हेतु है । मन्त्र का शान मात्र मन्त्र फल का साधक नहीं है, मन्शान मात्र से मन्त्र का फल नहीं प्राप्त होता । यदि मन्त्रज्ञान मन्त्रजप की क्रिया से युक्त न हो । शङ्का होती है कि 'मन्त्र का जप भी मन्त्र का धारावाहिक ज्ञान ही है । वह वागूव्यापार रूप क्रिया नहीं है। क्योंकि मौन होकर मन्त्र जपने वालों को भी फलप्राप्ति होती
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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