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________________ । १८२ ] [शाब्बार्ता स्त. १०/बेदेऽपि पठ्यते शेष महात्मा तत्र तत्र यत् । स व मानमतोऽप्यस्याऽसत्वं वक्तुं न युज्यते ॥ ४५ ॥ अन्यदण्याह वेदेऽपि पठ्यते पेपः सर्वज्ञः महात्मा-शुद्धसत्वः, तत्र तत्र " स सर्वविद् यस्यैव महिमा " इत्यादौ यत् यस्मात्, स च-येदः मानं प्रमाणं भवताम्, अतोऽपि हेतोः अस्थ-सर्वज्ञस्य असत्वं वक्तुं न युज्यते ।। ४५ ॥ न चाप्पतीन्द्रियार्थत्वाज्ज्यायो विषयकल्पनम् । असाक्षाद्दर्शिनस्तत्र रूपेऽन्धस्येव सर्वथा ॥४६॥ न चेहार्थवादादिकल्पनया परिहार इत्याह न चाप्यतीन्द्रियार्थत्वात् साक्षात् तदर्थाऽदर्शनात् , ज्यायः-शोभनम् विषयकल्पनम्= अर्थवादादिकल्पनम् असाक्षाद्दर्शिनः छद्मस्थस्थ, तत्र-वैदे, निदर्शनमाह-सर्वथाऽन्धस्य= जात्यन्धस्य रूप इव-नीलादौ विषय इव । यथा हिं जात्यन्धस्य न सम्यग नीलादिग्रहण श्लाघा युज्यते, तथा च्छद्मस्थस्यापि सर्ववित्त्वश्लाघेति । न च सिद्धार्थस्य स्वार्थेऽप्रामाण्यमपि वक्तुं युक्तम् , व्यभिचार के अतिरिक्त सामर्थ्य हेतु वेद मन्त्रों में स्वरूपासिद्ध भी है क्योंकि वेद मन्त्रों के सभ्यक प्रयोग द्वारा विवाहादि संस्कार होने पर भी विवाहित श्री का वैधव्य आदि होने से धैवाहिक वेद मन्त्रों में सामर्थ्य का अभाव स्पष्ट है। तो जैसे विपरीत फल होने से बेद मन्त्रों में सामर्थ्य नहीं सिद्ध होता उसीप्रकार किसी भी हेतु से उस में अपौरुषेयत्व भी नहीं सिद्ध हो सकता ॥ १४ ॥ ४५वीं कारिका में बेद में अपौरुषेयत्व की सिद्धि के विरुद्ध अन्य बात भी बताई गयी है कारिका का अर्थ इसप्रकार है-वेद में भी तत्तत् स्थलों में शुद्ध बुख सर्वश के अस्तित्व का स्पष्ट उल्लेख है । जैसे स सर्पयिद यस्यैष महिमा-जिस की यह सृष्टि की रचना आदि महिमा है वह सर्ववेसा है,' इसप्रकार वेद में अनेक स्थान में सर्वश का उल्लेख है और बेदाऽपौरुषे. यत्ववादी के मत में वेद प्रमाण है। अतः वेदात्मक प्रमाण से ही संर्षश की सिद्धि होने से उस का भसदभाष अताना युक्तितंगत नहीं हो सकता ॥ १५ ॥ [ असर्वज्ञ का सर्वज्ञ रूप में अर्थवाद अनुचित ] ४६ वीं कारिका में यह बताया गया है कि घेद में जो सर्वत की सत्ता के योधक वाक्य प्राप्त होते हैं उन्हें सामान्य मनुष्य की अपेक्षा अधिकवेत्ता की प्रशंसा में प्रयुक्त-अर्थवाद मान कर उग से सर्वश की सिद्धि की आपत्ति का परिहार नहीं किया जा सकता । कारिका का अर्थ इसप्रकार है जो पुरुष छद्मस्थ-मिथ्याशाम के संस्कार से सम्पम यानी असर्वश होता है, उस के लिए वेद में वर्णित अनेक अर्थ अतीन्द्रिय होते है जिन का साक्षाद् दर्शन उन्हें नहीं होता । अतः उन के विषय में येद में अर्थवाद की कल्पना उचित नहीं हो सकती, क्योंकि असर्वज्ञ की सर्वश के रूप में प्रशंसा उतनी ही अनुचित है जितनी जन्मना अग्ध मनुष्य की नील आदि रूपों के द्रष्टा रूप में।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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