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स्या, क. टीका-हिन्दीविवेचन ]
[ १८३ प्रथमं गृहीताया अपि शब्दत्वावच्छेदेन कार्यस्वविशिष्टशक्तरुत्तरकालं बाधकदर्शनेन त्यागात्, प्रथमं गृहीताया इव चन्द्र-तारादिस्वरूपताया उत्तरप्रवृत्तागमादिमूलतत्महत्त्वज्ञाने अनुभावकत्वे आकासादिवत्साध्यतोपरागस्याआमाणिकगौरवेणाऽप्रयोजकत्वाच्च; अन्यथा 'परिणतिसुरसमाम्रफलम् ' इत्यादिबाक्यश्रवणानन्तरं सुरसाम्रफलानुभवाभावेन प्रवृत्त्यनुपपत्तिप्रसङ्गात् । न च सत्र क्रियापदमध्याहृत्यैव प्रवृत्तिरिति वाच्यम् ; अध्याहारे मानाभावात् । किञ्च, 'पुत्रो जातस्ते' इति श्रवणे हर्षप्रयुक्तमुखप्रसाददर्शनाद् हर्षस्य ज्ञानसाध्यत्वात् पुत्रजन्मज्ञान उपचितस्य वाक्यस्यैव हेतुत्वौचित्यात् । अन्यथा 'गामानय' इत्यादावपि प्रमाणान्तरजन्यज्ञानेनान्यथासिद्धिप्रसङ्गात् कथं न सिद्धार्थस्यानुभावकत्वम् ! । यदि चाप्रवृत्तिपराद् वाक्यादननुभव एव, तवा तत्र मूकतैब स्यात् , ज्यवहाराभावात् । असंसर्गग्रहादेव तत्र व्यवहारोपपादने चान्यत्रापि तत एव तदुपपत्तिः किं न स्यात् ! । इति प्रवृत्तिवद् व्यवहारस्याप्यनुभवप्रमाणतया सिद्धं सिद्धार्थस्यानुभावकतया ॥४६।।
यदि यह कहा जाय कि- सिद्धार्थक-विधिप्रत्यय से अनधीत यायय, स्वार्थ में प्रमाण नहीं होता। अतः सर्वबोधक षचन भी सिद्धार्थक होने से सर्पज्ञ की सत्ता में प्रमाण नहीं हो सकता' -तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रयोजक और प्रयोज्य वयस्क पुरुषों के व्यवहार से जिज्ञासु बालक को सर्वप्रथम शब्दसामान्य का सक्तिग्रह यद्यपि कार्यत्व क्रिया से अन्चित अर्थ में ही होता है किन्तु बाद में लाघघ-गौरव का विचार करने पर पूर्वजात शक्तिग्रह को न्याग कर लाधवषश स्वार्थ में ही शक्ति का अवधारण होता है। पूर्व में गृहीत के त्याग की कल्पना कोई अप्रामाणिक अपूर्वकल्पना नहीं है, क्योंकि चन्द्रमा-नक्षत्र आदि में पहले स्वल्पपरिणाम का ग्रहण होने पर भी बाद में शास्त्र से उन के महत्परिणाम का ज्ञान होने पर पूर्व गृहीत परिमाण को अमान्य कर दिया जाता है।
दूसरी बात यह है कि आफाका आदि जिस प्रकार शब्द में अर्थ की अनुभाषकता का प्रयोजक होता है उसप्रकार साध्यता का उपराग यानी कार्यता का सम्बन्ध अनुभाषकता में प्रयोजक नहीं होता । अतः जिस अर्थ में साध्यता का उपराग नहीं है किन्तु सिद्धता है शरद में उस की अनुभावकता का अपलाप नहीं किया जा सकता, क्योंकि शब्द से सिद्धार्थ के बोध का अपलाप किया जाएगा तो "परिणतिसुरसमाम्रफलम् ग्राम का फल पकने पर सुमधुर रस से भर जाता है ।" -इस वाक्य का श्रवण होने के अनन्तर मीट रस घाले आम्रफल का अनुभव न होने से आम्रफल, के ग्रहण में उक्त वाक्य के श्रोता की प्रवृत्ति न हो सकेगी क्योंकि अध्याहार में प्रमाण न होने से ग्रहाण-ग्रहण करो' या भिश्च खायो' इत्यादि क्रियापद का अध्याहार कर के उक्त वाक्य से अर्थानुभव की उत्पत्ति नहीं की जा सकती ।।
इस के अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि 'पुत्रस्त जात.तुम्हें पुत्र उत्पन्न हुआ' इस वाक्य को सुनने पर श्रोता का मुख प्रसन्न हो उठता है उस की इस प्रसन्नता से उस के हर्ष का, हर्ष से हर्ष के कारण पुषजन्म ज्ञान का अनुमान होकर उस ज्ञान का अन्य साधन उपस्थित न होने से उस शान से उक्त वाक्य में ही उस ज्ञान की कारणता का अनुमान होता है । अतः सिद्धार्थक वाक्य में भी अर्थानुभावकता निर्विवाद सिद्ध है।