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स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन )
[ १८१ 'वैदिकमन्त्रशब्दा अपौरुषेयाः, समर्थत्वात् , व्यतिरेके शब्दान्तरं दृष्ट्वान्तः' इत्यप्यसाधनमित्यभिधातुमाह
मन्त्रादीनां च सामर्थ्य शावराणामपि स्फुटम् ।
प्रतीतं सर्वलोकेऽपि न चाप्यन्यमिचारि तत् ॥ ४४ ॥ मन्त्रादीनां च सामर्थ्य विषापहरणादौ, शावराणामपि पौरुषेयाणामपि, स्फुट-सर्वसाक्षिकं सर्वलोकेऽपि प्रतीतम् , तथा च व्यभिचार इति भावः । असिद्धतामप्याह-न चापि तत्=भवदभिमतं वेदमन्त्रसामर्थ्यम् अन्यभिचारि, सुप्रयुक्तमन्त्रेऽपि विवाहादिकर्मणि वैधक्ष्यादिदर्शनात् । तदेवमयौरुषेयत्वमपि नान्यः हिरोहयतीति भातम् । ।
करने से यह भी कहा जा सकता है कि कुमारसम्भव का भी आध अध्ययन नहीं है किन्तु, कुमारसम्भव के इवानीन्तन अध्ययन के समय आद्य माने जाने वाले कुमारसम्भव के अध्ययन में भी गुरुमुवाधीन कुमारसम्भव के अध्ययनपूर्वकत्व का अनुमान फर कुमारसम्भव के भी अपौरुषेयत्व की सिद्धि की आपत्ति हो सकती है। कहने का आशय यह है कि वेदाध्ययनत्व में गुरुमुखाधीतवेदाध्ययनपूर्वकत्व की ध्यामि तभी मान्य हो सकती है कि जब सामान्य रूप से यह व्याप्ति मान्य हो सके कि तत् तत का अध्ययन गुरुमुखाधीन तसदध्ययनपूर्वक होता है-किन्तु ऐसी व्याप्ति नहीं है, क्योंकि कुमारसम्भत्र आदि के आध अध्ययन में गुरुमुखाधीन कुमारसम्भवाध्ययनपूर्वकत्व नहीं है । फलतः वेदाध्ययनत्य भी आद्य वेदाध्ययन में गुरुमुखाधीनदाध्ययनपूर्वकत्व का व्यभिचारी होने से आधाभिमत वेदाध्ययन में गुरुमुखाधीतवेदाध्ययनपूर्वकत्व का अनुमापक नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-'आधाभिमत घेदाध्ययन पक्ष है अत: उस में हेतु में साध्य का व्यभिचार नहीं बताया जा सकता, अन्यथा पक्ष में साध्य का निश्चय न होने से अनुमान मात्र का उच्छेद हो जाएगा । -तो यह ठीक नहीं है, क्योकि पक्ष द्वाग हेतु में साध्यध्यभिचार के प्रदर्शन का तात्पर्य हेतु में अपयोजकत्र के प्रदर्शन में होता है । कहने का भाव यह है कि वेदाध्ययनत्व में गुरुमुखाधीन वेदाध्ययनपूर्वकन्व की व्याप्ति कर कोई प्रयोजक प्रबल तर्फ न होने से वेदाध्ययनत्व में गुरुमुखाधीत वेदाध्ययन पूर्षकत्व की व्याप्ति का ग्रह नहीं हो सकता। अत: वेदाध्ययनस्य हेतु से आधाभिमत वेदाध्ययन में गुरुमुखाधीत वेदाध्ययनपूर्वकत्व का अनुमान नहीं हो सकता । ४३ ॥
[ वेदमन्त्रों में अपौरुषेयत्वसाधक सामर्थ्यहेतु साध्यद्रोही ] ४४ वीं कारिका में यह बताया गया है कि शब्दान्तररूपी व्यतिरेकी दृष्टान्त से सामर्थ्य हेतु द्वारा वेद के मन्त्रात्मक शब्दों में अपौरुषेयत्व का साधन नहीं किया जा सकता। कारिका का अर्थ इसप्रकार है
'वेद के मन्त्रात्मक शब्द् अपौरुषेय हैं पोंकि सामर्थ्य युक्त हैं जो शब्द अपौरुषेय नहीं होता, उस में सामर्थ्य नहीं होता । जैसे सामान्य मनुष्य का किसी को शाप देने या वर देने का शब्द ।' -इसप्रकार का अनुमान नहीं हो सकता क्योंकि विष का अपहरण करने के लिए पुरुष प्रणीत शाबर मन्त्रों में विषापहरण का सामर्थ्य सर्वमान्य होने से उन मन्त्रों में सामर्थ्य अपौरुषेयस्व का व्यभिचारी है।