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[ शामवार्ताः स्त० १०/४३ 'आधाभिमतं हिरण्यगर्भवेदाध्ययनं गुरुमुखाधीतवेदाध्ययनपूर्वकम् , वेदाध्ययनत्वात, इदानींतनवेदाध्ययनवत्' इत्येतदप्यसाधनमित्यभिधातुमाह-- स्वकृताध्ययनस्यापि तद्भायो न विरुध्यते । गौरवापादनार्थं च तथा स्यादनिवेदनम् ।।४३॥
स्वकृताध्ययनस्यापि स्वरचितपाठस्यापि, तद्भावः-आद्याध्ययनभावः न विरुध्यते कालिदासादिकृतकुमारसंभवादौ तथा दर्शनात् । तथा चायं व्यभिचारी हेतुरिति भावः । कृतापलापे कारणमाह -गौरवापादनार्थ च-प्रस्तुतग्रन्थस्याग्गिनिर्मितत्व संभावनादिनाऽत्यादरार्थ च, तथा स्यादनिवेदनंमदत 'मत्कृतोऽयम्' इति ॥४३।। ___ यदि यह कहा जाय कि-'जिन नियमों से शब्द की निष्पत्ति होती है । उन नियमों के बोधक शास्त्र में अनातोक्तत्य की शंका होने पर, पयं जिस शास्त्र से जिन कर्मों के अनुष्ठान में प्रवृत्ति होती है उस शास्त्र में अनाप्नोक्तत्व की शंका हो जाने पर शब्दप्रयोग में तथा शास्त्रोक्त कर्मानुष्ठान में मनुष्य की प्रवृत्ति का प्रतिबन्ध हो जाता है। अत: शब्दसाधुत्ववोधक व्याकरण में तथा कर्मानुष्ठान के बोधकशास्त्र में आप्तोक्तत्व का निश्चय आवश्यक है। -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि व्याकरण में अनातोकत्व की शंका होने से व्याकरण से निष्पन्न होने वाले शब्दों के साधुत्य की शंका हो जाती है, पर्व कर्मानुष्ठान के बोधक शास्त्र में अनाप्तोक्तत्व की शंका होने से कर्म में कर्त्तव्यत्व की शंका हो जाती है - यह बात ठीक है; किन्तु ये शंकाएँ शब्द में याच साधुत्व की शंका एवं कर्म में पाच कर्तव्यत्य की शकारूप होने से शब्द के साधुत्य निश्चय में तथा कर्म में कसंध्यत्व के निश्चय में प्रतिबन्धक नहीं हो सकती, क्योंकि ग्रामसंशय कभी भी ग्राह्यनिश्चय का प्रतिबन्धक नहीं होता। और तत्तत् शास्त्र से होने वाली प्रवृत्ति के लिए तत्तत् शास्त्र में सामान्यरूप से आप्तोक्तत्व निश्चयमात्र को ही अपेक्षणीय मानना उचित है न कि आप्तविशेष द्वारा उक्तत्व निश्चय को अपेक्षणीय सामना चाहिए। फलतः क समय अनुष्ठाता को कर्मानुष्ठान योधक शास्त्र में उस के कर्ता का विशेष रूप से स्मरण की अपेक्षा न होने से, उक्त नियम के सिद्ध न हो सकने से उस के आधार पर वेद में स्मरणयोग्य कर्तृकत्व की सिद्धि न हो सफने के कारण, वेद में उक्त विशिष्ट हेतु की स्वरूपासिद्धि अनिवार्य है ॥ ४२ ॥
[ आद्याभिमत वेदाध्ययन में गुरुमुखाधीत वेदाध्ययनपूर्वकत्व की असिद्धि ]
४३ थीं कारिका में यह बात बताई गयी है कि वेदपौरुषेयत्ववादी हिरण्यगर्भ के जिस अध्ययन को आद्य अध्ययन मानते हैं उस में इदानीन्तन वेदाध्ययन के दृषान्त से वेदाध्ययनत्व हेतु से गुरुमुखाधीन वेदाध्ययनपूर्वकत्व का साधन कर के वेद की अपौरुषेयता का समर्थन नहीं किया जा सकता। कारिका का अर्थ इसप्रकार है
हिरण्यगर्भ के वेदाध्ययन को आध अध्ययन मानने में कोई विरोध नहीं है। यह निस्सं. कोच कहा जा सकता है कि हिरण्यगर्भ ने येद की रमना कर के उस का मध्ययन प्रस किया है। केवल इस नातं उस अध्ययन को आय अध्ययन मानना उचित नहीं हो सकता कि हिरण्यगर्भ ने अपने अधीत वेद को अपने द्वारा रचित नहीं कहा है, क्योंकि वेद को अर्याग्दी से भनिर्मित कहने पर उस का गौरव हो सकता है, लोक में उस का आदरपूर्वक ग्रहण हो सकता है, इस दृष्टि से भी वेद के कर्ता द्वारा उस में स्वकृतस्य का गोपन हो सकता है। अन्यथा, कालीदासकृत कुमारसम्भव आदि में कालिदास द्वारा स्वक्कतत्व का प्रदर्शन