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स्या. क. दीका-हिन्दीनियेचन ]
[ २१९ यदपि 'श्रूयते च प्रकृताहारमन्तरेणापि '....[१९८-६] इत्याद्युक्तम् , तदप्यपालोचिताभिधानम्, प्रथमतीर्थकरप्रभृतीनां निराहारकालमानोक्तिप्रामाण्ये तदियत्तानियमस्यापि तत एव सिद्धेः, तदधिकनिराहारतच्छरीरस्थितेः सूत्रे निषेधात् निरशनकालस्य तावत एवोत्कृष्टताप्रतिपादनात् “'संवच्छरमुममजिणो" [ उ. माला-३ ] इत्यादिवचनमामाण्यात् । इत्थं च 'निनिमित्तं सूत्रभेदकरणम् ' [१९८-८] इति परास्तम्, तच्छरीरस्य चिरतरकालस्थितेरेव सूत्रभेदकरणनिमित्तत्वात् , प्रकृताहारमन्तरेण तरिस्थतेरसंभवस्य प्रतिपादनात्, सामान्यसूत्रस्याप्यन्यथानुपपत्त्या यथासंभवन्यायेन विशेषयोधकत्वात् । भूयोसि च प्रकृताहारप्रतिपादकानि केवलिनः सूत्राप्यागम उपलभ्यन्ते, प्रतिनियतकालप्रकृताहारनिषेधकानि च; यथा वर्धमानस्य भगवतो व्याख्याप्रज्ञप्त्यादौ बिकटभोजित्वाद्यभिधायकानि, यथा च प्रथमतीर्थकृत एवं चतुर्दशभकनिधनाष्टायन दशसह के पासवृत्तस्य निर्वाणगतिपतिपादनादिसूत्राणीति न सूत्रभेदक्लप्तिदोपोऽपि ।
। दूसरी बात यह है कि जो आगमबाह्यव्यक्ति यानी दिगम्बर वर्ग तिथयगतपियरो० अनुसार इत्यादि गाथ के तीर्थकर, उन के माता-पिता, बलदेव, चक्रवर्ती, वासुदेव और युगलिक मनुप्यों को सीर्फ आहार ही मानते हैं और नीहार का निषेध करते हैं-वे केवलिभुक्ति में नीहार का आपादन कैसे कर सकते हैं?; यदि कहै कि- आहार से सातवेदनीयको उदीरणा होती है। अत: वह आहार का व्यापक है। उस व्यापक से सर्वज्ञता आदि का विरोध होगा । -तो यह ठीक नहीं क्योंकि उक्त उदीरणा प्रमाद का कार्य है, केवल आहार का कार्य नहीं है । यदि बाययोग का व्यापार मात्र होने के कारण आहार से उत्त. आपत्ति होगी तो उपदेश आदि से भी उस की आपत्ति हो सकती है क्योंकि यह भी वाद्ययोग का ही पक घ्यापार है। उक्त समस्त विचारों से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि भगवान को आहारी मानने में कोई आपत्ति या अनुपपत्ति नहीं है ।
[निराहार कालस्थिति सूचक सूत्र से ही आहार सिद्धि ] यह सब जो कहा गया था कि [पृ. १९८ में] प्रकृत आहार के विना भी भगवान के औदारिक शरीर की स्थिति चिरकाल तक रह सकती है। यह प्रथम तीर्थकर आदि के विषय में सुना जाता है।' यह कथन भी अधिवेकपूर्ण है क्योंकि प्रथम तीर्थकर आदि के निराहार कालमान सूचक जो प्रमाण कहा गया है उस कालमान बोधक प्रमाण से ही उस की इयत्ता का नियम भी सिद्ध हो जाता है। मतः उस नियतकाल (१० दिन ) से अधिक काल तक निराहार होने और आहार के विना शरीर की स्थिति होने का भी निषेध उक्त सत्र से ही अवगत हो जाएगा, क्योंकि भोजनाभाव के उतने ही काल की उत्कृष्टता का सूत्र में प्रतिपादन मान्य है। यतः उपदेशमाला का यह वचन है कि" संवच्छरमसभजिणो-संवत्सरं वृषभजिनः" इस से सिद्ध है कि एक वर्ष तक ही ऋषभदेव का निराहार कालमान है इसलिए यह कहना कि-'प्रत विषय से सम्बद्ध सूत्र द्वारा निराहार और निराहार काल की इयत्ता दोनों का प्रतिपादन मानने में एक ही सूत्र में मर्धभेद से सुप्रभेद की भी आपत्ति होगी। जिस का कि कोई उचित निमित्त नहीं है ' यह भी परास्त हो जाता है क्योंकि केवली के शरीर की चिरकाल तक स्थिति का प्रतिपादन १."छम्मासा बदमाणजिणचंदो | इस विहरिआ निरसणा, जइन एओत्रमाणेणं ।।" इति शेषः ।