________________
२२० ]
[ शास्त्रवा० स्त० १०/६४
यदपि न चातिशयदर्शनात् [१९८-९] इत्याद्युक्तम् । तदपि न, निराहारौदारिकशरीरचिरतरस्थितेरदृष्टायाः कल्पने सयोगात्यन्तावस्थानस्याप्यतिशयेन प्रसङ्गापादने दोषाभावात् , बाधकानुमानादेश्वोभयत्र सत्त्वात् । एतेन यदुच्यते 'सुनिश्चितासम्भवदाधकप्रमाणत्वादकवलमोजिन्यं भगवतः सिध्यति ' इति: तदपि प्रत्युक्तम् , एतस्य प्रामाण्येऽतन्त्रत्वाच. बाधकप्रमाणाभावस्यान्यतः प्रमाणाद् निश्चये तत्राप्येतन्निश्चयाच प्रमाणान्तरापेक्षायाभनयस्था सनात् । बाधानुपलम्भात् तन्निश्चयस्य चाशक्यत्वात् , उत्पत्स्यमानयाध केऽपि प्रागवाधानुपलब्धिसम्भवात् । न चानिश्चितलक्षणं प्रमाणं प्रमेयन्यबस्थानिवन्धनम् , ज्ञातकरणानां प्रामाण्यनिश्चयापेक्षत्वात् , अप्रामाण्यज्ञानास्क्रन्दितधूमादिपरामर्शाद वहन्यनुभित्य
करना हो सक में भेदक का निमिस है। उक्त मूत्र में ही प्रकृतआहार के अभाव में शरीर की स्थिति को असम्भव बताया गया है। सामान्य सूप भी अन्यथा उत्पन्न न होने की दशा में यथासम्भय न्याय से विशेष आम बोधः साना साना 'गह में गली के प्रकृत आहार का प्रतिपादन करने वाले बहुत से सूत्र आगम में उपलब्ध होते हैं। साथ ही एक नियत काल सफ प्रकृत आधार के निपंधक सूत्र भी उपलब्ध होते हैं। असे- व्याख्याप्रशस्ति' आदि सूत्रों में भगवान बर्षमान को चिकामोजी बताने वाले सूच पक्ष अष्टापद पर्वत के उपर दश हजार केवली पुरुणे के मध्य में प्रथम तीर्थकर के चौदह टंक भोजन के निषेध के साथ निर्वाणगति का प्रतिपादन करने वाले नुन | तो इसप्रकार जय भगवान के आधार और एक नियत समय तक निशहार का प्रतिपादन करने वाले भिन्न-भिन्न पत्र उपर हैं -तो पक ही सत्र से उक्त दोनों बातों का प्रतिपादन करने के लिए एक है। सूत्र में अंद की कल्पना का दोष भी नहीं है।
[सयोगिकेवली की चिरतर अमर्यादित स्थिति की दिगम्बरपक्ष में आपत्ति ]
जो यह सब कहा गया कि पृ.१९८ में] भगवान में अतिशय के दर्शन से जसे समग्र दोषावरणों की हानि होने से आत्मा के अत्यन्त शुद्ध स्वभाव की प्रतिपत्ति होती है; उमीप्रकार प्रकृत आहार के अभाव में भी उन के औदारिक शरीर की भात्यन्तिक स्थिति भी सिद्ध हो सकती है और ऐमा मानने पर “ अशरीरा जीयघणा" इत्यादि आगम के विरोध की आशंका नहीं की जा सकती' -ठीक नहीं है क्योंकि विना प्रकृत आहार के औदारिक शरीर की चिरस्थिति नहीं देखी गयी है। फिर भी यदि उस की कल्पना की जापगी तो सयोगि केवली व्यक्ति के भी अतिशय के आधार पर अत्यन्त अयस्थान की आपत्ति के उदभाचन में कोई दोष नहीं होगा। यदि इस आपत्ति के विरुद्ध कोई अनुमान इसप्रकार का प्रस्तुम हो कि विधादाम्पद सयोगी केवली व्यक्ति का अवस्थान आत्यन्तिक नहीं होता; जैसे अतिशयहीन सयोगी केवली का अघस्थान - तो इसप्रकार का अनुमान निराहार शरीर आत्यन्तिक अवस्थिति के विरोध में भी प्रस्तुत किया जा सकता है। जैसे-निराहार शरीर की अवस्थिति आत्यन्तिक नहीं होती क्योंकि किसी भी औदारिक शरीर की आत्यन्तिक स्थिति उपलब्ध नहीं है। फलतः अतिशय के आधार पर आहार के बिना केवली के औदारिक शरीर की मात्यन्तिक स्थिति का समर्थन नहीं किया जा सकता। यह जो कहा गया कि-आहार के समर्थन में कोई सुनिश्चित बाय प्रमाण न होने में भगवान की निराहारता सिद्ध होती है । यह भी उक कारण से ठीक नहीं हैं और बाधकप्रमाण का अभाष भगवान की निराहारता के साधन को प्रमाणभुत बनाने में अशक भी है क्यों क बाधक प्रमाणाभाय का किसी अन्य प्रमाण से निश्चय मानने पर उस अन्य