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________________ स्या. फ. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ २२१ नुत्पत्तिदर्शनात् । संवादादसंभवद्याधकप्रमाणत्वनिश्चये च संवादित्वमेव तन्त्रमस्तु । तच्च संवादिस्वमतीन्द्रियार्थविषयस्यागमस्याप्तपणीतत्वाद् निधीयते, तत्पणीतत्वनिश्चयश्चागमैकवाक्यतया व्यवस्थितस्य केवलिभुक्तिप्रतिपादकसूत्रसमूहस्य सिद्ध एव । इति निर्बाधागमादपि केवलिभुक्तिसिद्धिरिति सर्वमवदातम् । तेन सिद्धर्मतत्--कवलाहारित्वेऽपि घातिकर्माकलहितेन भगवताऽभिव्यक्तादस्माकमागमाद् धर्माऽधर्मव्यवस्थेति । दिगम्बर ! परस्परं मतविरोध मत्सरं निरस्य हृदि भाव्यतां यदिदमुच्यते तत्वतः । स्थिता परिणतिर्यथाक्रममघातिना कमणां न कि कबलभोजिनं गमयति त्रिलोकीगुरुम् ? ॥१॥ यस्यासन् गुस्त्रोऽत्र जीतविजयाः प्राज्ञाः प्रकृष्टाशया माज-ते सनया नयादिविजयपाज्ञाश्च विद्याप्रदाः । प्रेग्णां यस्य च सद्म पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरः तेन न्यायविशारदेन रचितस्तकोऽयमभ्यस्थताम् ॥ २ ॥ इति श्रीपण्डितश्रीयमविजयसोदरन्यायविशारदपण्डितयशोविजयविरचितायों स्याद्वादकल्पलताभिधानायां शास्त्रवार्तासमुच्चयटीकाय दशमः स्तबकः । प्रमाण में भी प्रामाण्य के निश्चय के लिए अन्य प्रमाण की अपेक्षा होने पर अनवस्था की प्रमति होगी। यदि याध के अनुपलम्भ से बाधाभाव का निश्चय किया जाएगा तो यह भी शक्य नहीं हो सकेगा क्योंकि जिस का बाध भविष्य में उत्पन्न होने वाला है, उस की उत्पत्ति के पूर्व उसके भी बाध की अनुपलब्धि है किन्तु पतायता उस का थाधाभाव नहीं मिख होता । क प्रमाण का पारा निश्चित न हो जाय तव तक उस से प्रमेय की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि जो ज्ञात होकर करण होते है, उन में करणता की उपपत्ति प्रामाण्य निश्चय होने पर ही होती है। धृभ आदि के अप्रामाण्यज्ञान से आस्कन्दित परामर्श से अग्नि के अनु. मिति की उपपत्ति नहीं की जा सकती । और बाधकप्रमाण की अमम्भाध्यता का निश्चय जय संयादी प्रमाणान्तर के समर्थन से किया जायगा तब बाधकप्रमाण के अभात्र को प्रामाण्य का प्रयोजक न कह कर सम्वादी होने को ही प्रामाण्य का प्रयोजक कहना उचित होगा और ब्रह संत्रादित्व अतीन्द्रिय अर्थ के प्रतिपादक आगम में आप्तप्रणीत होने के आधार पर निश्चित हो सकता है और आप्तप्रणीतत्व का निश्चय आगम के साथ एकवाक्यतापन्न-उस सूत्रसमूह में भी होगा जो कैवली के भोजन का प्रतिपादक है। इसप्रकार निर्वाध आगम से भी केवली के भोजन की सिद्धि निर्विवाद है। अत: यह पूर्ण रूप से सिद्ध है कि भगवान के कालाहारी होने पर भी उन में घातीकर्मों का कोई कलङ्क नहीं होता है, अत एव उन में सर्वशता का आविर्भाव होने से अतीन्द्रिय अर्थ के प्रतिपादक आगम को प्रकट करते हैं और उसी से धर्म-अधर्म की व्यवस्था होती है। [सर्वज्ञ-कवलाहार चर्चा का उपसंहार] उक्त समग्र विचार का उपसंहार करते हुए अन्य कारने दिगम्बरों को यह शुभ परामर्श दिया है कि वे पारस्परिक मतभेद से उत्पन्न इया भाय का त्याग कर अपने हृदय पर हाथ
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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