________________
२२२ ]
[शासवार्ता० स्त० १०/६४
रख कर इस तात्विक उक्ति पर विचार करें कि क्या अघातीकर्मों की क्रमिक परिणति द्वारा भाहारमाही त्रिलोकीगुरु की उपपसि नहीं होती?।-निश्चय ही रिहित होकर उक्त विद्यार करने पर दिगम्बर इस निष्कर्ष को स्वीकार करने के लिए बाध्य होंगे कि त्रिलोकीगुरु केवली भगवान का आहारी होना युक्ति और आगम उभय से सम्मत है । उपसंहार के अन्तिम पच में ग्रन्थकार ने केवली भगवान के आहार के सम्बन्ध में प्रस्तुत विचारों के सन्दर्भ में निर्णय प्राप्त करने के इच्छुक जनों से अनुरोध किया है कि वे इस सम्बन्ध में उन के द्वारा प्रस्तुत तकौं को हृदयङ्गम करने का अभ्यास करें। ये तर्क कई कारणों से ग्राह्य है, जसे-इन तर्कों को प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति स्वयं न्यायविशारद है, उन के परम गुरु जीतविजय, अत्यन्तप्राज्ञ और उदाराशय रहे। उन के गुरु पर्व विद्या दाता भयविनय भी बडे बुद्धिमान और नयनिपुण थे तथा उन के सहोदर नाता परमप्रेमास्पद पनबिजय भी बहे गुद्धिमान पुरुष थे। फिर जिस व्यक्ति ने स्वयं ग्याय शास्त्र में उच्च कोटि का पाण्डित्य प्राप्त किया है और जिस के मन्त्रदाता और विद्यादाता, गुरु और भाई आदि उत्कृष्ट विद्वान रहे हों जिस का जीवन विद्या के ऐसे वातावरण में पनपा हो उन के तर्क का अकाटच और उत्कृष्ट होना स्वाभाविक है।
१३ दशम स्तबक सम्पूर्ण
र