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श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः
हिन्दी विवेचन विभूषितस्याद्वाद कल्पलताच्या ख्यालंकृत
शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
[ स्तबक - ११ ]
[कारणम् ]
अपापायामायानुसृतमतिरभ्येत्य सदने, क्षमाया निर्मायापहृतमदमायान् गणभृतः । सभायामायातान् य इह जनताया मुदमदादपायात् पायाद् वो जिनवृषभवीरः स सततम् ॥१॥ प्रत्यूहापोहमन्त्रः सकलजन वशीकारकृत् सिद्धविद्यो दुर्नीतिव्याधिदिव्यौषधमधमजनम्यालपारीन्द्रनादः । अज्ञानध्वान्तवारा रविकिरणभरो यस्य नामार्थसिद्धि दत्ते विश्वस्य शश्वत् स भुवि विजयतामाश्वसेनिर्जिनेन्द्रः ।। २ ।।
[ व्याख्याकारकृत मंगलाचरण ]
जिनों में वृषभ (श्रेष्ठ) ऐसे वे वीर प्रभु जो क्षमा के मन्दिर हैं, जिन्होंने लाभबुद्धि के ऐसे निर्मल ज्ञान से ) अपापानगरी में सा कर ग्यारह ब्राह्मण पण्डितों) को गर्व और माया से
आपत्ति से निरन्तर हमारा रक्षण करते रहो, अनुसार ( अर्थात् 'वहाँ जाने से लाभ हैं' सभा में आये हुए गणधरों (इन्द्रभूति वगैरह मुक्त बना कर लोगों को हर्ष उपजाया था ।२१।।
इस श्लोक में यह घटना सूचित है कि ऋजुवालिका नदी तट पर जब श्रीर भगवान को केवल्यज्ञान की प्राप्ति हुयी उस वक्त अपापानगरी में गौतम गोत्र वाले इन्द्रभूति वगैरह ग्यारह ब्राह्मण पण्डित यश कर रहे थे। वे सब स्वयं सर्वश होने का गर्व करते थे और अपना अज्ञान कहीं खुल्ला न हो जाय इसलिये माया भी करते थे। सर्वश बने हुए भगवान ने देखा कि वहाँ जाने से इन लोगों को प्रतिबोध प्राप्त होगा तो उपकार बुद्धि से वे रातभर बिहार ( पदयात्रा) कर के अपापानगरी में आये, वहाँ उन पण्डितों के हृदयगत संशय की खोल कर उस का ऐसा समाधान दिया जिस से उन पण्डितों के सर्वश होने का गर्व खुर हो गया और अत्र सर्वत्र होने का कपटप्रचार त्याग कर भगवान महावीर के शिष्य बन गये । समग्र जनता में उस से आनन्द फैल गया |
दूसरे श्लोक में पार्श्वनाथ भगवान की स्तुति की गयी है वे अश्वसेननृपपुत्र ( पार्श्वनाथ ) जिनेन्द्र पृथ्वी में जय पा रहे हैं, जो अज्ञान तिमिर की धारा के लिये सूर्य के रश्मिवृन्द जैसे हैं, जिन को (सर्व) विधाएँ सिद्ध है और जिन का नाम विघ्नविनाशी मन्त्र ही है, सकल लोगों