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________________ २२४ ] [ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ११/९ येषां गिरं समुपजीव्य सुसिद्धविद्यामस्मिन् सुखेन गहनेऽपि पथि प्रवृत्तः ते सूरयो मयि भवन्तु कृतप्रसादाः श्रीसिद्धसेन - हरिभद्रमुखाः सुखाय ॥ ३ ॥ L ननु सर्वज्ञोपज्ञादागमाद् धर्माऽधर्भावस्था इत्युक्तम् तच्च कथं युक्तम्, शब्दस्याऽकल्पितार्थाविषयत्वात् शब्दार्थयोर्वास्तयसम्बन्धाभावाच्च १ - इति मनसिकृत्य वार्त्तान्तरमुत्थापयतिअन्ये स्वमित्येवं युक्तिमार्गकृतश्रमाः । शब्दार्थयोर्न सम्बन्धो वस्तुस्थित्यैह विद्यते ॥ १ ॥ 1 अन्ये तु बौद्धाः अभिदधति एवं वक्ष्यमाणमकारम् किम्भूता इत्याह-युक्तिमार्गकृतश्रमाः = अनुभवाद्युत्सृज्य जातियुक्तिमात्रनिष्ठा इत्युपहासः एवमर्थमाह - शब्दार्थयोः लोके प्रसिद्धयोर्नामनामवतो: न सम्बन्धः कश्चिद्वस्तुस्थित्या=परमार्थेन इह = जगति विद्यते सम्बन्धान्तरनिषेधात् तादात्म्यतदुत्पत्योरयोगाच्च ॥ १ ॥ को वश करता है, दुनेयरूप व्याधि के लिये देवताई औषध समान है तथा अधम पुरुवरूप हिंसक पशुओं के लिये अजगर के नाद (कार) तुल्य है, तथा ( जिस का नाम ) सदा के लिये विश्व को इष्टार्थसिद्धि दे रहा है ।। २ ।। भली भाँति विद्या प्राप्त कराने वाली जिन की वाणी का प्रश्रय ले कर इस ( शास्त्र के } गहन मार्ग में भी सरलता से प्रवृत्ति कर सका हूँ वे श्री सिद्धसेनरि (=सम्मति तर्क के कर्त्ता) तथा श्री हरिभद्रसूरि प्रमुख आचार्य मेरे ऊपर प्रसन्न होफर सुख के लिये होवे ॥ ३ ॥ [ शब्द को अर्थ के साथ कुछ सम्बन्ध नहीं - बौद्धवार्ता] प्रश्न:- सर्वज्ञ प्रणीत आगम से धर्म-अधमं की व्यवस्था होने का जो कहा वह से युक्त कहा जाय ? तात्पर्य यह है कि आगम तो शब्द रूप होते हैं और अकल्पित वास्तविक ) अर्थ कभी शब्द गोचर ही नहीं होता, क्योंकि शब्द का अर्थ के साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध ही नहीं होता है. तो शब्दात्मक आगम से व्यवस्था कैसे होगी ? इस प्रकार के प्रश्न को ध्यान में रख कर अत्र मूल ग्रन्थकार एक अन्य वार्त्ता ( शब्दार्थ के सम्बन्ध की वार्त्ता) का उत्थान करते हैं • युक्ति मार्ग में परिश्रम करने वाले दूसरे वादी ऐसा कहते हैं कि वस्तुस्थिति से शहर और अर्थ का कोई सम्बन्ध ही विद्यमान नहीं है। यहाँ ये दूसरे वादी बौद्ध मत के अनुयायी हैं। उन का जो कहना है वह तो आगे दिखायेंगे ही; किन्तु उपहासवान जरूर हैं क्योंकि अनुभवादि को एक ओर छोड कर असदुत्तर प्रधान युक्तिवृन्द के ऊपर ही निर्भर रहते हैं, इसीलिये उन के लिये युक्ति मार्ग में परिवम करने वाले पेसा उपहासगर्भित विशेषण प्रयुक्त किया है। मूल कारिका के पूधि में जो 'पयं' पर है उसी का उत्तरार्ध से अर्थ विवेचन किया है कि शब्द और अर्थ का यानी लोक में प्रसिद्ध नाम और नामी का इस जगत् में परमार्थ से कोई सम्बन्ध ही विद्यमान नहीं है। कारण, तादात्म्य और तदुत्पति इन दोनों के सिषा और तो कोई सम्बन्ध ही बन सकता नहीं हैं और तादात्म्य तदुत्पत्ति ये दो सम्बन्ध शब्दार्थ में घटता नहीं है ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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