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स्या. क. टीका-हिन्दीविवेवम ]
[ २२५
तत्र तादात्म्यं निरस्यन्ताह
न तादात्म्यं द्वयाभावप्रसङ्गाद् बुद्धिभेदतः ।
शस्त्रायुक्तौ मुखच्छेदादिसङ्गात् समय स्थितेः ।। २ ॥ न तादात्म्यं 'शब्दार्थयोः' इत्यनुकृप्य योज्यते । कुतः इत्याह-द्वयाभावप्रसङ्गात् शब्दार्थयोरेकत्वेन भेदनिबन्धनद्वित्वाभावात् स्वस्वरूपवत् । तथा, बुद्धिभेदतः घटादिशब्द-पटाद्यर्थयोः श्रावण-चाक्षुषादिबुद्धिभेदाद मेदसिद्धौं अभेदाऽसिद्धेः, घर--पवनादिवत् । तथा, शस्त्रायुक्तौ= करवालानलाद्यमिधाने मुखच्छेदादिसंगात् वदनच्छेदनाहादिप्रसंगात् करवालाऽनलादिनिवेशवत् । तथा, समयस्थितेः=संकेतव्यवस्थानात् । न ह्यगृहीतसमयः शब्दोऽर्थं प्रत्याययति, घटपदशक्ति. परिज्ञानविकलानां पामराणां विपरीतव्युत्पन्नानां च घटपदश्रवणमात्राद् घटार्थप्रत्ययप्रसंगात् ; किन्तु यः शब्दो यत्र गृहीतसंकेतः स तमेवार्थ प्रत्याययतीति । न चेदमर्थतादात्म्ये युज्यते । न ह्यर्थ एवं समयव्यवस्थानं दृष्टमिष्टं वा ॥ २ ॥
शब्द और जयं में वादात्म्य का निरसन ] दूसरी कारिका में शब्द और अर्थ में तादात्म्यसम्बन्ध की सम्भावना का निराकरण किया गया है-कारिका का अर्थ इस प्रकार है
पर्थ कारिकागत शब्दाशयोस अंश को विंच कर यहाँ न तादात्म्य, के साथ उस का अन्वय करने पर ऐसा अर्थ फलित होगा कि शब्द और अर्थ इन दोनों का तादात्म्य सम्भव नहीं है। इस में क्रमशः चार हेतु हैं
(१) द्वयाभाव प्रसंग । शब्द और अर्थ को यदि एक मान लेंगे तो, जसे वस्तु का अपने स्वरूप के साथ पेक्य होने पर वस्तु और उस के स्वरूप में भेदमूलक द्वित्व नहीं होता उनी प्रकार यहाँ भी शब्द और अर्थ में द्वित्व का विलोप हो जायेगा।
(२) दूसरा हेतु है बुद्धिभेद । घटादिशब्द की बुद्धि श्रावण प्रत्यक्षरूप होती है जब कि घटादि अर्थ की बुद्धि चाक्षुषप्रत्यक्षरूप होती है। इस प्रकार त्रुदिभेद से उन दोनों का भेद प्रसिद्ध होने से अभेद की सिद्धि अशक्य है। उदा० घट और पवन में बुद्धिभेद से भेद सिद्ध है तो यहाँ अभेद कभी नहीं रहता।
(३) तीसरा हेतु यह है कि शस्त्रादि शब्दोच्चार करने पर मुख-द आदि हो जाने की आपत्ति । यदि शब्द और अर्थ में पेक्य होगा तो खड़ग और अग्नि आदि शब्दों का उच्चारण करते समय ही मुख का विभेद और दाह आदि हो जायगा। जैसे कि सच्चे ही मुग्व में खड्ग या अग्नि का सहसा प्रवेश कर दिया जाय तो मुख का भेदन और दाह हो जाता है।
(४) चौथा हेतु है, संकेत श्यवस्था। तात्पर्य यह है कि जिस शब्द का संकेत जिस को अज्ञात हो उस को उस शब्द सुन कर भी अर्थबोध नहीं होता। यदि संकेनशान के बिना ही अर्थबोध मानेंगे तो जिन गमार लोगों को 'वट पद का शक्तिग्रह नहीं हुभा है अथवा जिन को 'घट पद अश्व अर्थ का बोधक है। ऐसा विपरीत बोध हो गया है-से लोगों को भी 'घर' पद के श्रवण मात्र से घटरूप अर्थ का बोध हो जाने की आपत्ति होगी। अतः यह