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[ शास्त्रावार्ता स्त० ११/३ तदुत्पत्ति निराकुरुतेअर्थाऽसनिधिभावेन तदृष्टावन्यथोक्तितः । अन्याभावनियोगाच न तदुत्पत्तिरप्यलम् ॥३॥
अर्थाऽसनिधिभावेन-घाद्यसंनिधावपि घटादिशब्दोत्पत्त्या व्यतिरेकव्यभिचारात् , तदृष्टीदेवदत्ताद्यर्थदृष्टौ अन्यथोक्तित: गोत्रस्खलनादिदशायो यज्ञदत्तादिशब्देनोक्तितो देवदत्तादिशब्दानुस्पत्याऽन्वयन्यभिचारात् ; तथा अन्यस्मिन् घटादौ पटादिशब्दस्य अभावे चात्यन्ता ऽसति वाध्येयादी बान्ध्येयादिशब्दस्य नियोगात सकेतकरणात्, यद् यतो नोत्पत्तिस्वभावं तस्य तत्र नियोगवयात् न तदुत्पत्तिरपि अर्थात् शब्दोत्पत्तिरपि अलं.--शोभते ।। ३ ।।
___ शब्दानां वास्तवार्थत्वे दोषान्तरमाह
तो मानना होगा कि जिस अर्थ में जिस शब्द का मकेत इात हो, वह शब्द उसी अर्थ का बोध ! | सकता है। हिनु पार न झाद मी अर्थ से अभिन्न मानने पर नहीं घटेगा। शब्द और अर्थ में यदि अभेद होता तो जसे शब्द में अर्थ का संकेत किया जाता है वैसे अर्थ में शब्द का भी सकत शश्य हो जाता, किन्तु न तो ऐसा कहीं देखा गया है, न तो यह इध है कि अर्ध में शब्द का संकेत किया जाता हो ॥२॥
[शब्द का अर्थ के साथ तदुत्पत्तिसम्बन्ध अशक्य ] तीसरी कारिका में शब्द और अर्थ के तदुत्पत्ति सम्बन्ध की सम्भावना का निराकरण किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
(i) अर्थ से यदि शब्द की उत्पत्ति होती हो तन्य धृम से अग्नि के बोध की तरह शब्द से अर्थ का बोध सम्भवित था, किन्तु अथ से शब्द की उत्पत्ति मानने में व्यतिरेक व्यभिचार बाधक है, क्योंकि घटादि अर्थ सनिहित न होने पर भी घटादि शब्द की उत्पत्ति होती है।
(२) अन्वय व्यभिचार भी, अर्थ से शब्दोत्पत्ति मानने में बाधक है, यह इस प्रकार :सामने जब देवदत्तादि अर्थ दिखाई दे रहा है तब उस से - देवदत्त' शब्द की उत्पत्ति होनी चाहिये. उस के बदले गोवस्खलनादि दशा में यज्ञदत्तादि शब्द का उच्चार सहसा हो जाता है। एक नाम बोलने जाय तब गलती से दूसरा नाम बोल दिया जाय उस को गोत्रस्खलनदशा कहते है। यहाँ देवदन्त अर्थ से देवदत्त शब्द का उच्चार (उत्पत्ति न होना यही अन व्यभिचार हुआ।
(s) तथा, मकेत तो इच्छानुसार किया जाता है जैसे-घटादि अर्थ के लिये कभी घटादि शब्द का मंकेत किया जाता है। उपगन्त. वनध्यापुत्रादि जो अत्यन्त अभावात्मक ( असत) पदार्थ है उन में भी 'पानध्येय' आदि पदों का संकेत किया जाता है। यदि शब्द अर्थ से उत्पन्न होता तब तो असत् से सत् की उत्पत्ति की आपत्ति आ गिरेगी । मत्पर्य जिस का जिस से उत्पन्न होने का स्वभाव नहीं, उस का उस के साथ संबंतात्मक कुछ सम्बन्ध मानना भी घ्यर्थ है। सारांश, अर्थ मे शब्द की उत्पत्ति का पक्ष भी शोभास्पद नहीं है ॥३॥
[शब्दार्थ के बीच वास्तवसंबन्ध मानने में आपत्ति] चौथी कारिका में शब्द को वास्तविक अर्थ का प्रतिपादन मानने में सम्भधित अन्य दोष का उल्लेख किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है