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स्था, क. टीका-हिन्दीविवेचन )
[ २२७ परमार्थंकतानत्वे शब्दानामनिबन्धना । न स्यात् प्रवृत्तिरथेषु दर्शनान्तरभेदिषु ॥४॥
परमार्थंकतानत्वे-वास्तवैकविषयत्वेऽभ्युपगम्यमाने शब्दानामनिवन्धना प्रवृत्तिनिमित्तविकला, दर्शनान्तरभेदिपु दर्शनान्तरप्रसिद्धाऽसद्मावेषु अर्थेषु धानेश्वरादिपु प्रवृत्तिः शक्तिः न स्यात् । तथा च प्रधानादिपदानामप्रत्यायकत्वं स्याद् , अनिष्टं चैतत् । न च सखण्डप्रधानत्वादिविशिष्टे शक्तिभ्रमादुपपत्तिः, गवादिपदानामिव प्रधानादिपदानामखण्डधर्मविशिष्ट एवं शक्त्यनुभवादिति भावः ।। ४ ।। अतीताऽजातयोर्वापि न च स्यादनृतार्थता । वाचः कस्यचिदित्येषा बौद्धार्थविषया मता ॥५॥
अपि च, 'अतीता-जातयोः-विनष्टा-ऽनुत्पन्नयोवीप्यर्थयोरसत्त्वेन, न स्यात् प्रतः । तथा न चन्नैव भवेत् , अनृतार्थता असत्यार्थता वाचः, कस्यचित् प्रतारकादेः, अन्यथा परमार्थकतानत्वाऽयोगात्' इति अस्मादुक्तदोषात् एषाम्बाक, बौद्धार्थविपया बुद्धियलप्तार्थविषया, मना=इया शब्दार्थविद्भिः सौगतैः । ___ एतेन यदुक्तमुद्द्योतकरेण='अवाचकावे शब्दान प्रतिज्ञाहतुव्याघातः इति, तत् प्रत्युक्तम् ।
शब्द को यदि पाम्तव अधं का प्रतिपादक माना जायगा तो अन्य दर्शनों में जिन का अस्तित्व मान्य नहीं है से प्रधान ईHT आदि अर्थों में प्रधान-ईश्वर आदि शादों की शक्ति सम्भव न हो सकेगी, क्योंकि शहद की शक उस के प्रवृत्तिनि मिन से नियमित होती है और उक्त अर्थों में उक्त शब्दों का प्रतिनिमित्त नहीं है। फलतः ये शब्द उन अधों के बोधक न हो सकेंगे जो इष्ट नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-'प्रधीयतेऽस्मिन् इति प्रधानम्' इम व्युत्पत्ति से प्रधान शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त है प्रकृष्ट आधारत्व, और 'इष्ट यः स ईश्वरः' इस व्युत्पत्ति से ईश्वर शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त है जगग्निर्माण आदि का सामर्थ्य | मांख्ययोग सम्मत त्रिगुणात्मक प्रकृति और न्यायषशेषिक सम्मत जगत्कर्ता ईश्वर आदि में उक्त रूप से प्रधान आदि का शक्तिभ्रम होकर प्रधान आदि शब्दों से उन अर्थों का बोध हो सकता है तो यह टीक नहीं है, क्योंकि जैसे · गो' आदि शब्दों की अनाहु गोत्वादि विशिष्ट अर्थ में शक्ति होती है उसी प्रकार प्रधान, ईश्वर आदि. शब्द की भी अखण्ड धर्म विशिष्ट अर्थ में ही शक्ति अनुभवसिद्ध है । अतः उक्त सखण्ड धर्मों को उन शब्दों का प्रवृत्तिनिमित्त मानना असङ्गत है ।।४।।
[शन्द बुद्धिकल्पित अर्थ का वाचक ] पाँचवीं कारिका में शब्द को वास्तव अर्थ का प्रतिपादक मानने में कुछ अन्य दोषों का भी उल्लेख किया गया है। कारिका का अर्ध इस प्रकार है
शम्त यदि वास्तव अर्थ का ही प्रतिपादक होगा तर शब्द के बिनष्ट और अनुत्पन्न अथों का बोध न हो सकेगा क्योंकि बिनाश और अनुत्पत्ति की दशा में उन की वास्तविकता-वस्तु मत्ता नहीं होती। इस के साथ ही दूसरा दोष यह है कि शब्द यदि वास्तघ अर्थ का ही प्रतिपादक होगा तो वचक आदि के शब्दों से असत्य अर्थ का बोध न हो सकेगा । अतः शब्दार्थवेत्ता बौद्ध विद्वानों की यह मान्यता है कि शब्द का प्रतिपाद्य अर्ध याम्तय न होकर त्रुद्धिकल्पित होता है।
[उद्योतकर के आपादान का निरसन ] बौद्ध विद्वानों द्वारा वास्तब अर्थ को शब्दवाच्य न मानकर कल्पित अर्थ को शब्दवाच्य