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________________ २२८ ] [ शात्रवार्त्ताः स्त० ११/५ न बागोपालपतीतः शब्दार्थों निषिध्यते, किन्तु तत्र सांवृतत्वमभ्युपगम्य तात्त्विकत्वं निषिध्यत इति । तनिषेवश्च स्वलक्षणस्य व्यवहारका लाननुयायित्वेनाऽकृतसमयत्वात् तत्र शब्दस्य । अयमेवाभिप्रायः 'न जातिशब्दो मेदानां वाचक:, आनन्त्यात्' इति वदत आचार्यदिनागस्य । तेन यदुक्तमुद् द्योतकरेण = 'यदि शब्द पक्षयसि तदानन्त्यस्य वस्तुधर्मत्वाद् व्यधिकरण हेतु अथ भेदा एव पक्षीक्रियते तदा नाम्बयी न व्यतिरेकी दृष्टान्तोऽस्ति इत्यहेतुरानन्त्यम्' इति, तद् निरस्तम् । न च जातिविशेषणभेदेषु समयसंभवादयमदोपः जातेर्निरस्तत्यात्, अनन्तभेदविषयनिः शेषव्यवहारो 3 मानने से उद्योतकर का यह कथन कि 'शब्द को वाचक न मानने पर प्रतिक्षा और हेतु का व्याघात होगा क्योंकि वे दोनों शब्दात्मक होते हैं और शब्द का कोई बाध्य नहीं होता'खण्डित हो जाता है। क्योंकि बौद्ध विद्वान भोपाल तक को प्रतीत होनेवाले अर्थ में शब्दवाच्यत्व का निषेध नहीं करते, किन्तु शब्दवाच्य अर्थ की वास्तविकता का निषेध करते हैं। इसलिए बोद्धमत में कल्पित अर्थ शब्दवाच्य होने से प्रतिक्षा और हेतु वाक्य से भी कल्पित अर्ध का बोध हो सकने के कारण उन का व्याघात नहीं हो सकता। शब्दवाच्य अर्थ की वास्तविकता का निषेध भी इस आधार पर होता है कि वस्तुमृत अर्थ स्त्ररक्षण होता है. और वह क्षणिक होने से व्यवहारकाल तक नहीं रहता । अतः उस में व्यवहार द्वारा शब्द का संकेत ग्रहण न होने से वह शब्दवाच्य नहीं हो सकता, फलतः यह सिद्ध होता है कि जो शब्दवाच्य होता है वह वास्तविक नहीं होता है । [ दिग्नाग आचार्य के वचन का अभिप्राय ] 'जातिशब्द- जाति रूप निमित्त से प्रवृत्त होने वाला शब्द, भेद व्यक्तिभूत अर्थ का उन के आनन्त्य के कारण घाचक नहीं होता' आचार्य दिग्नाग के इस कथन का भी यही अभिप्राय है कि शब्दवाच्य अर्थ वास्तविक नहीं होता किन्तु कल्पित होता है । दिग्नाग का उक्त अभिप्राय होने के कारण ही उन के उक्त कथन के सम्बन्ध में उद्योतकर का यह आक्षेप निरस्त हो जाता है कि-"यदि शब्द को पक्ष कर के आनन्त्यहेतु से अचाचकत्व का साधन किया जायगा तो आनन्त्यहेतु व्यधिकरण यानी पक्ष में अमिद्ध होगा। क्योंकि वस्तुधर्म होने से वह शब्द में नहीं रहता, और यदि भेद व्यक्तिभूत अर्थ को पक्ष कर आनन्त्य हेतु से शब्दा वाच्यत्व का साधन किया जायगा तो हेतु और मध्य के कहीं एकत्र सिद्ध न होने से ranteera का. और साध्याभाष - शब्दवाच्यत्व पत्र हेत्वभाव के एकत्र कहीं सिद्ध न होने से व्यतिरेकी दृष्टान्त का अभाव होने के कारण हेतु में साध्य काव्यमिह सम्मत न होने से आनन्त्य हेतु से व्यक्तिमृत अर्थ में शब्दावाच्यत्व का साधन नहीं हो सकता।" यह इसलिये निरस्त हो जाता है कि व्यतिरेक दृष्टान्तरूप में काल्पनिक अर्थ को लेकर वास्तविक अर्थ में शब्दबाध्यत्व का अभाव सिद्ध किया जा सकता है । [ जातिविशेषितव्यक्ति में संकेत का असंभव ] यदि यह कहा जाय किं' व्यक्तिविशेष में शब्द का संकेतग्रह न होने पर भी जाति से विशेषित व्यक्तियों में शब्द का संकेतग्रह हो सकता है क्योंकि स्वलक्षण क्षणिक वस्तु व्यवहार काल में न होने पर भी उसके सजातीय अस्य वस्तु के होने से जातिद्वारा सभी स्वलक्षण व्यक्तियों में शब्द का संकेत हो सकता है । अतः स्वलक्षणात्मक वास्तविक अर्थ
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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