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स्या. क. टीका-हिन्दीविषसम ]
[ २२१ पलम्भस्य कस्यचिदसंभवेनाऽदृष्टेषु भेदेषु समयाऽसंभवाच । विकल्पबुद्ध्याहुतेषु तत्प्रतिपत्त्यभ्युपगमे च विकल्पसमारोपितार्थविषय एव संकेतः प्राप्तः ।
अथ समयक्रियाकाले क्षणान्तरसंनिधानात् कथं न स्वलक्षणे समयकरणसंभवः ! इति चेत् ! न, तस्याऽऽभोगाविषयीकृतत्वेनाधाभोगाऽविषाकृते संनिहिते गवादाबश्वपदस्येव समयस्य दुर्ग्रहत्त्वात् । साश्येनैक्यमध्यवस्य समयग्रहे च तस्याऽस्वलक्षणत्वेन स्वलक्षणस्य वाच्यत्वाऽसिद्धः । एतेन 'व्यक्तया-ऽऽकृति-जातयः पदार्थः' इति केषाश्चिद मतम् , 'जातिरेव पदार्थः' इत्यन्येषाम् , 'द्रव्यम्' इति च परेषाम् , 'उभयम्' इति चापरेषां मतमपास्तम् जातियोगाद व्यत्यादीनां च स्खलक्षणास्मकत्वात् , तत्पक्षभाविदोषानतिवृत्तेः । बुद्धयाकारेऽपि न समयः संभवति, तस्य व्यवहारकालाननुयायित्वात् , बहिरर्थज्ञापनाभिमानिमिरेव शब्दप्रयोगाश्च । 'अस्त्यर्थमात्रमेवापूर्वदेवतादिपदानामिव में भी शब्दवाच्यत्व का सम्भव होने से शब्दवाच्य बस्तु की वास्तविकता का निषेध सङ्गत नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अनेक दोषों के कारण जाति के अस्तित्व का निराकरण हो चुका है । और बूमरी बात यह है कि जाति के द्वारा भी अनन्त व्यक्तियों में शब्द का संकेतग्रह नहीं हो सकता क्योंकि जो व्यवहार उपलब्ध होता है । यह व्यक्ति विशेष के मन्यन्ध में ही होता है । सम्पूर्ण अनंत व्यक्तियों के सम्बन्ध में होने वाले समग्र व्यवहार का उपलभ तो किसी को नहीं होता। अतः व्यवहार काल में जो व्यक्तिभूत अर्थ अष्ट है उनमें शब्द का संकेतग्रह नहीं हो सकता । और यदि आति एवं व्यक्ति के स्थैर्य और सम्बन्ध को ग्रहण करने बाली विकल्प (आगेए) रूपबुद्धि के आधार पर एक व्यक्ति के ध्यवहार काल में, एक व्यक्ति में शायमान जाति के आश्रयरूप में सम्पूर्ण व्यक्तियों का अलौकिक बोध मान कर उस व्यक्ति के सम्बन्ध में होने याले व्यवहार से भी जाति द्वारा समय व्यक्तियों में शब्द का संकेतज्ञान माना जायगा तो निश्कर्ष रूप में यही फलित होगा कि विकल्प बुद्धि विषयभूत आरोपित अर्थ ही शब्द का वाच्य है, वास्तव अर्थ शब्द का वाच्य नहीं है।
[अनभिप्रेत अर्थ में संकेत का असंभव ] बौद्ध को प्रश्न हो सकता है कि-'समयां = संकेत ) के क्रियाकाल में पूर्वक्षण के अतीत हो जाने पर भी अन्य नूतनक्षण का मनिधान होता ही है तो फिर उस स्वलक्षण क्षण में शब्द का संकेतग्रह क्यों नहीं होता?'- इसके उत्तर में चौद्ध का कहना है कि सन्निहित नूतनक्षण आभोग यानी शब्दध्यवहार के अभिप्राय का विषय (लक्ष्य) नहीं है अत: उसमें, ठीक उसी प्रकार शब्द का संकेतग्रह सम्भव नहीं होता, जसे गो आदि के सन्निहित होने पर भी अश्व शब्न के व्यवहार का विषय (लक्ष्य) न होने से उन में अश्व शब्द का संकेत ग्रह नहीं होता । यदि सन्निहित क्षण में शलव्यवहार के बिषयभूत पूर्वक्षण का सादृश्य होने से उसमें पूर्पक्षण के पेक्य की बुद्धि करके पूर्वसदृश क्षण रूप से उसमें शब्द का संकेतग्रह होगा तो सारश्य विशिष्ट श्रण स्वलक्षणात्मक न होने से, उसके शब्दवाच्य होने पर भी स्वलक्षण में शब्दवाच्यता की सिद्धि न होगी।
वस्तुभूत अर्थ को शब्दवाच्य मानने के पक्ष में बताए गये दोशे के कारण-१ व्यक्ति, आकृति एवं जाति यह तीनों शब्दपाच्य है, २ जाति मात्र ही शब्द का वाच्य है, ३ द्रव्य शब्द का वाच्य है, ४ जाति और व्यक्ति अथया जाति और द्रव्य दोनों शब्दवाच्य है, इन चारों मत का