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________________ २३० ] [ शानघाताः स्त० ११/५ गवादिपदानामर्थः, तत्राकारविशेषपरिग्रहस्तु केषाञ्चित् सिद्धान्तबलात्, न तु शन्दात् ' इत्येके । तद्न, शब्दभेदव्यवहारबिलोपाद् विपाणादिविशेषानुपरागेणास्त्यर्थवाचकत्वे च गोस्वविशिष्टस्य वाच्यत्वमिष्टम् , तत्र चोक्तप्राय एव दोषः । अपरे तु 'तपो-जाति-श्रुतादेह्मिणादिशब्दैः समुदायो विना विकल्प-समुच्चयाभ्यां सामस्स्येनाभिवीयते, यथा बनादिशब्दैर्धवादयः । 'बनम्' इत्युक्ते हि 'धवो वा खदिरो वा' इति न विकल्पेन धीः' न वा 'धवश्च खदिरश्च' इति समुञ्चयेन, आप खु सामस्थेने प्रतीक वादयः, तथा 'ब्राह्मणः' इत्युक्तेऽपि 'तपो वा जातिर्वा श्रुतं वा' 'तपश्च जातिश्च श्रुतं च' इति वा न वीः, निराकरण हो जाता है. क्योंकि जाति का अस्तित्व प्रामाणिक नहीं है; और व्यक्ति स्वलक्षणात्मक है अत. स्वलक्षण को शब्द वाच्य मानने के पक्ष में कथित दोषों से व्यक्ति की शब्दवाच्यता का पक्ष मुक्त नहीं हो पाता । 'अर्थ का बाह्य अस्तित्व नहीं होता किन्तु वह धुद्धि का ही आकारविशेष होता है, इस मान्यता के अनुसार बुद्धि का आधारभूत अर्थ ही शब्द का वाच्य होता है' यह मत भी मंगत नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धि के णिक होने से उसके आकारभून अर्थ के भी अणिक होने के कारण वह भी व्यवहारकाल तक अनुवर्तमान नहीं होता। और तूसरी बात यह है कि शब्द का प्रयोग बायर्य की सत्ता की मान्यता पर ही निर्भर अतः खाद्य को स्वीकार न करके केवट चाकार मात्र को स्वीकार करने पर उसे शब्ददाय कहना कथमपि समीचीन नहीं हो सकता। कुछ एक विद्वानों का कहना यह है कि "-जैसे अपूर्व-देवता आदि शब्द का कोई विशेष आकार से विशिष्ट अर्थ नहीं होता किन्तु अस्त्यर्थ-सतषस्तु मात्र ही उनका अर्थ होता है, और उसमें आकारविशेष का बोध अपने-अपने मिद्धान्तों के अनुसार होता है ठीक उसी प्रकार 'गो' आदि शब्दों का भी विशेपआकार विशिष्ट अर्थ न होकर सद वस्तु मात्र ही अर्थ है और उसमें आकारविशेष का बोध अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार होता है। अतः किसी मत में गो आदि शब्दों का अर्थ बद्न्याकार और किसी मत में बाह्याकार माना जाता है।" किन्तु यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि यदि सन्मात्र ही सभी शब्दों का अर्थ होगा तो गो अश्व आदि सभी शब्दों के समानार्थक होने से अर्थभेद से शब्दभेद के लोकप्रसिद्ध व्यवहार का लोप हो जायगा तथा यदि विषाण( श्रृङ्ग) आदि विशेष आकारों को त्याग कर सन्मात्र को गो आदि शब्द का वाच्य माना जायगा तो ‘गोत्वादिविशिष्ट, गोआदि शब्द का वाच्य है' यही फलित होगा, जो समीचीन नहीं हो सकता, क्योंकि गोत्व आदि जाति का निराकरण किया जा चुका है। [ब्राह्मणादि शब्द से समुदाय का बोध ] अन्य विद्वानों का कहना है कि-" ब्राह्मण आदि शब्द से तप, जाति और विद्या आदि के समुदाय का एक साथ बोध होता है, विकल्प और समुश्चय के रूप में उनका बोध नहीं होता। श्राह्मण शम्ब ठीक बन शब्द के समान है। स्पष्ट ही है कि वन शब्द से घव खदिर आदि वृक्षों के समुदाय का एक समग्रता में बोध होता है, न कि घव अश्या खदिर-इस प्रकार विकल्प से, या धव वन है-खदिर आदि वन है, इस समुच्चय रूप में बोध होता है। ठीक उसी प्रकार ब्राह्मण शब्द से भी तप, जाति विद्या आदि में एक-एक का अथवा समुनचय
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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