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स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ]
[ २३१ अपि तु साकल्येन संबन्ध्यन्तरव्यवच्छिन्नास्तपःप्रभृतयः संहताः प्रतीयन्ते' इत्याहुः । तदपि न, बनादिपदेनापि परस्परसंनिहितमहुवृक्षत्वादिप्रकारकविकल्पबुद्धग्रुपहतार्थस्यैवाभिधानात, समुदायस्य प्रत्येकानतिरिक्तत्वेनान्वयितयानभिधेयत्वात् ।
परे तु-'द्रव्यत्वादिनिर्धारितस्वरूपैर्यः संबन्धो द्रव्यादीनां स शब्दार्थः । स च संबन्धिनां शब्दार्थत्वेनाऽसत्यत्वादसत्य इत्युच्यते । यद्वा, तपःश्रुतादीनां मेचकवर्णवदेक्येनावभासनादेषामेव परस्परमसत्य: संसर्गस्तथा '–इत्याहुः । अन्ये तु-'असत्यवलयालीयकाद्यपाधिकं सत्यं सुवर्णादिसामान्यमभिधेयम्' इत्याहुः । मतद्वयमिदमसत्, संयोगादिसंबन्धस्य सामान्यस्य च निरासात् , असत्याभिषेयत्वध्रौव्याच।
रूप में तप, जाति आदि का बांध नहीं होता, किन्तु किसी अन्य सम्बन्धी के विना ही तप आदि के समुदाय का समग्ररूप में ही बोध होता है । फलतः तप, जाप्ति, विद्या आदि का मिलित समट ही ब्राह्मण नका अभिधेय होता है। यही दृष्टि अन्य सभी शादों के सम्बन्ध में ज्ञातव्य है । क्योंकि गो आदि शब्दों से भी श्रृङ्ग, पुच्छ, मास्ता आदि के समुदाय का भी एक समग्रता में बोध होना आनुभत्रिक है।”- किन्तु यह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि जिस बम शब्द के दृष्टान्त से श्राह्मण शब्द का अर्थ निर्धारित करने की बात कही गयी है उस धन शब्द का उक्त अभिधेय अर्थ होने में ही गलती है। सत्य यह है कि बन शब्द भी धव, खदिर आदि वृक्षों के समुदाय का मिलित समृष्ट रुप में बोधक न होकर परस्पर सन्निहित धव, खदिर आदि विविध बहुवृक्षत्वरूप से एक ऐसे अर्थ का बोधक होता है जो विकल्पबुद्धि द्वारा एक व्यक्ति के रूप में गृहीत होता है । तो जैसे परस्पर सन्निहित धव, खदिर आदि बहुवृक्षत्ररूप से विकल्पबुद्धि द्वारा उपस्थित व्यक्ति वन शब्द का अर्थ होता है, उसी प्रकार तप, जाति, विधा आदि से सम्पन्न रूप में विकल्पबुद्धि से गृहीत व्यक्ति ब्राह्मण शरद का अभिधेय होता है । वन और ब्राह्मण शब्द के पूर्वोक्त समुदाय रूप अर्थ को मान्यता न मिलने का दूसरा कारण यह है कि समुदाय प्रत्येक से भिन्न नहीं होता । अत: असे प्रत्येक अन्वयीरूप से उक्त शब्दों का अभिधेय नहीं होता उसी प्रकार समुदाय भी अन्वयीरूप से उन शब्दों का अभिधेय नहीं हो सकता।
[सम्बन्ध अथवा सामान्य में शब्दवाच्यत्व का निरसन ] अन्य विद्वानों का मत यह है कि-द्रव्यत्व आदि निर्धारित रूपों के साथ द्रव्य शदि का सम्बन्ध ही 'द्रध्य' आदि शब्दों का अभिधेय है। किन्तु यह द्रव्यत्व आदि रूप एवं द्रव्य आदि सम्बन्धियों के शब्दार्थरूप से अमत्य होने से असत् कहा जाता है । अथवा यह कहा जा सकता है कि जैसे नील-पीत आदि विभिन्न रूपों का पक चित्ररूप में बोध होता है उसी प्रकार तप, जाति, विद्या आदि का एक ब्राह्मण के रूप में बोध होता है। अतः सप, जाति, विद्या आदि का परस्पर में प्रतीत होने वाला असत्य सम्बन्ध ही ब्राह्मण शब्द का अर्थ है।
अन्य विद्वानों का मत है कि कण, अगृठी आदि असत्य उपाधियां सुवर्ण शब्द का अर्थ न होकर वे उपाधियां जिस सामान्य सुषर्ण द्रव्य की होती है वह शुद्ध सुवर्ण सामान्य सुवर्ण व्रध्य का अर्थ होता है । ठीक यही बात ब्राह्मण आदि शब्दों के सम्बन्ध में भी शातध्य है अर्थात् ब्रामण आदि के सम्बन्ध में भी यही मानना उचित है कि तप, जाति विद्या आदि