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[ शास्त्रवाक स्त. १०/६४ बहलकुसुमपरिमलादपि घ्राणेन्द्रियोद्भवमतिज्ञानप्रसङ्गात् । नापी-पथिकी क्रिया, गमनादिनापि तत्प्रसजात् । नापि परोपकारहानिः, तृतीययाममुहूर्तमात्र एव भगवतां भुक्तेः शेषमशेषकालमुपकारावसरात् । नापि व्याधिसमुत्पत्तिः, परिज्ञाय हितमिताहाराभ्यवहारात् । नापि पुरीधादिजुगुप्सा, स्वस्य निर्दग्धमोहबीजतयैव तदनुत्पत्तेः, अन्येषां तु तद्भावे मनुजा-ऽमरेन्द्ररमणीसहस्रसंकुलायां समायामनंशुके भगवत्यासीनेऽपि तत्प्रसङ्गात् ; सातिशयत्वपरिहारस्य चोभयत्र तुल्यत्वात् । सामान्यकेवलिभिस्तु विविक्तदेशे तस्करणे दोषाभावात् । कथं चैतदाहारेऽपि निहाराभावमप्युपगच्छताऽऽगमचा नापादयितुं शक्यम् ! "'तिस्थयरा तप्पियरो" इत्यादिवचनात् । न च तद्यापकेनापि सातवेदनीयोदीरणादिना विरोधः, तस्य प्रमादकृतत्वात् चाह्ययोगव्यापारमान्नेण तत्प्रसझे, उपदेशादिनापि तत्प्रसङ्गादिति न किमप्यनुपपन्नम् ।
[मतिज्ञानादि के आपादन का निस्सन ] रसनेन्द्रियजन्य मतिज्ञान भी आहार का कार्य नहीं है फिन्तु क्षयोपशम भाच विशिष्ट कर्मपुद्गल का कार्य है। यदि तत्तदिलिय से होने वाले मतिज्ञान को क्षयोपशम भाव वाले कर्मपुद्गल से जन्य न मानकर केवल विषयेन्द्रिय सम्पर्कजन्य ही माना जाएगा तो देवता द्वारा पैर से जानु तक बिखेरे हुये प्रचुर पुष्पगन्ध से भी धाणेन्द्रियजन्य मतिज्ञान की आपत्ति होगी। पर्यापथिकीक्रिया भी आहार का कार्य नहीं है, जिस से उस का केवली में आपादन किया जा सके, क्योंकि आहार से उस की उत्पत्ति मानने पर अनाहारवादी के मत में गमनादि से भी उस की आपत्ति होगी। परोपकार की हानि भी आहार का कार्य नहीं है, क्योंकि भगवान का आहार केवल नृतीयमहर के मुहूर्तमात्र में ही होता है। अतः उस से अतिरिक्त पूरे समय में उपकार का अवसर रहता है। रोगोत्पत्ति भी आहार से सम्भव नहीं है क्योंकि भगवान ज्ञानपूर्वक हित और परिमित पथ्य आहार ही ग्रहण करते हैं।
[आहार क्रिया से जुगुप्सादि दोषों का निरसन] __ भगवान को आहारी मानने पर आहारजन्य पुरीष आदि में घृणा की भी सम्भावना नहीं की जा सकती क्योंकि भगवान को उक्त घृणा उन के मोहवीज दग्ध हो जाने के कारण नहीं प्रसक्त होगी। अन्य जनों को यदि घृणा होने की आपत्ति की जाएगी तो अनाहारवाद में भी भगवान निर्वस्त्र होने से रब मनुष्यों और देवताओं की सहखों रमणियों से भरी सभा में बैठेंगे तो उन की नग्नता के कारण उन के प्रति उन सहस्रों नारियों के मन में भी पृणा की आपत्ति होगी। और यदि भगवान् के सातिशय होने के कारण उक्त आपत्ति का परिहार किया जाएगा तो यह परिहार मनाहारवाद और आहारवाद दोनों में समान रूप से सम्भव होगा। फलतः भगवान के सातिशय होने के कारण आहार जनित पुरीष आदि के आधार पर उन के प्रति किसी के मन में घृणा की आपत्ति नहीं होगी। हाँ, जो सामान्य केवली हैंअतिशय सम्पन्न नहीं है उन के मस्यन्ध में उक्त प्रकार की आपत्ति का उदभाषन सम्भव है किन्तु यह दाप उन के सम्बन्ध में भी नहीं होगा क्योंकि वे किसी निर्जन दूर देश में पुरीष आदि का त्याग करते हैं। १. तीर्थक तस्तत्वतरः । [हलधर-चकी य वासुदेवा य । मणुआण्य भोगभूमी आहारो, गस्थि णीहारे ।। ]