SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | २१७ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] दयादेरतथावात्, मोहादेश्च तत्कारणत्वनिरासात्; तत्कार्यस्यापि चिरकालमान्यौदारिकशरीर स्थितेरतथात्वात् ! प्रमाद कार्यग योगदुमपान तन्निमित्तत्वात् तस्य च राग-द्वेषकृतत्वात् । एतेन ' आहारकथयैव चेद् यतीनां प्रमत्तत्वम् तर्हि कथ नाहार कुर्वतां भगवत तदापद्यते ?' इति प्रभाचन्द्रोक्तं निरस्तम्, देशकथा वदाहारकश्या रागादिपरिणामकृतया दोषोपपचावपि देशवदाहारस्योदासीनस्यानपराधात्, अन्यथाऽऽहारकथयेवाहारेणापि सुसंयतानामतीचारप्रसङ्गात् । 7 निद्रापि न तत्कार्यम् दर्शनावरणप्रकृतिजन्यत्वात् तस्याः । न च ध्यान तपोव्याघातौ तत्कार्ये, शैलेशीकरणप्रारम्भात् प्राध्यानानभ्युपगमात् अभ्युपगमे वा तद्व्यामस्य शाश्वतत्वात् अन्यथा गच्छतोऽप्येतद्विनप्रसङ्गात् विशिष्टतपसोऽपि कायक्लेशकरस्य भगवत्यसिद्धेः, "अणुतरे तथे " इति सूत्रस्य शैलेश्यवस्थामा विध्यानरूपस्याभ्यन्तरतपसः पारम्यावेदकत्वात् । नापि रासनमतिज्ञानं तत्कार्यम्, तस्य क्षयोपशमावस्थाविशिष्टकर्म पुद्गलनिमितकत्वात्; अन्यथा सुरविकीर्णजानुदन , यह कहना भी निरस्त हो जाता है कि 'यदि आहार की चर्चा से ही यतियों में प्रमाद होना सम्भव है तो आहार करने वाले भगवान केवली को प्रसाद क्यों नहीं होता ? प्रभाचन्द्र के इस कथन से यह प्रतीत होता है कि ' प्रमाद आहार का कार्य है अत एव भगवान को आहारी मानने पर उन में प्रमाद की आपत्ति अनिवार्य है किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि राग आदि के परिणाम से जो आहार की चर्चा होती है उस से देश चर्चा के समान प्रमाद दोष सम्भव होने पर भी रागादि के परिणाम से मुक्त उदासीन आहार से उदासीन देश के समान ही प्रमाद के उदयरूप अपराध का अस्तित्व नहीं माना जा सकता। यदि केवल आहार कथा से ही यतियों में अतिचार माना जाएगा तो सुसंयत यतिभों में भी आहार में अतिचार की आपति होगी ही । [ निद्रादि दोपापादन का निरसन ] निद्रा भी आहार का कार्य नहीं है किन्तु वह दर्शनावरण प्रकृति का कार्य है । अत एव आहार से निद्रा की सम्भावना कर केवली में सर्वशता आदि के व्याघात का आपादान नहीं किया जा सकता । ध्यान और तप का व्याघात भी आहार का कार्य नहीं है जिस से यह कहा जा सके कि 'भगवान में आहार मानने पर उन के ध्यान और तप का ध्याधात होगा; ' क्योंकि शैलेशी अवस्था के प्रारम्भ होने के पूर्व में भगवान में ध्यान का अभाव हो जाता है और यदि उस अवस्था में भी ध्यान माना जाएगा तो वह शाश्वत होने से उस ध्यान के व्याघात की शंका ही नहीं की जा सकती । अन्यथा अनाहारवादी के मत में भी भगवान गतिशील होने की दशा में ध्यानभंग की आपत्ति होगी। शारीरिक क्लेश का जनक विशिष्ट कोटि का तप भी केवली भगवान् में नहीं माना जाता, अत एव आहार से उन के तप में भी व्याघात की शंका करना उचित नहीं हैं। 'अणुत्तरे तवे अनुत्तरं तप:' इस सूत्र में शैलेशी अवस्था में होने वाले ध्यानरूप आभ्यन्तर तप कर उत्कर्ष बताया गया है, अतः उस के द्वारा भगवान में कायक्लेशजनक तप होने की कल्पना नहीं की जा सकती । १. अनुत्तरं तपः |
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy