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स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन
[५७ [प्रतिबन्धकत्व की कल्पना में गौरव ] किन्तु यह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि त विशेष्यकत्य की उपस्थिति को उत्तेजक बना कर व्यवसाय में प्रामाण्यग्रह के प्रतिबन्धकन्य की कल्पना में गौरव है ।
यूसरी बात यह है कि व्यवसाय को प्रामाण्य ग्रह के प्रति प्रतिवन्धक मानन पर सबसायकाल में व्यवसाय में प्रामाण्य ग्रह की आपत्ति का चारण सरन्ट होने पर भी व्यवसाय नाश के उत्तरकाल में व्यवसाय में प्रामाण्यग्रह की आपत्ति होगी क्योंकि व्यवसाय के नृतीय क्षण में विद्यमान अनुव्यवसाय से उपनीत व्यचमाय और प्रामाण्य का विशेष्यविशेषणभाष से शान होने में कोई बाधा नहीं है। फलत: न्यायमत में व्यवसाय के चतुक्षण में व्यवसाय में प्रामाण्य का निश्चय सर्वत्र सम्पन्न हो जाने के कारण अनुव्यवसायविषयीभूत ज्ञान में अनुभव. सिद्ध प्रामाण्यमंशय की अनुपपत्ति अनिवार्य है।
उक्त कारण से प्रामाण्य की इमि के विषय में जनदर्शन घी यह मान्यता ही गुझियुक्त है कि प्रामा गय के आश्रयभूत ज्ञान में प्रामाण्यज्ञानरूप परिणाम के प्रति विषयाभ्यासविषय का पुन: पुन: दर्शन ही हेतु है। यदि ऐसा न माना जायगा तो स्वपकाशवाद में प्रदर्शितरीति से व्यवसाय क्षणिक होने के कारण अनुव्यवसाय में है। गृiia न हो सकेगा। फिर यदि वह प्रामाण्य की उपस्थिति से व्यवहित होगा तब तो अनुव्यवसाय द्वारा उस के ग्रहण की यात भी न कही जा सकेगी।
आशय यह है कि शान की स्वप्रकाशता का उपपादन करने के प्रमङ्ग में उस की अनुव्यवसायवेद्यता की परीक्षा आवश्यक होती है। परीक्षा के प्रसङ्ग में यह विचार उपस्थित होता है कि व्यवसाय को अनुव्यवसाय से ग्राह्य नहीं माना जा सकता क्योंकि प्रान क्षणिक होता है अर्थात् न्यायमतानुसार ज्ञान अपनी उत्पत्ति के नृतीय क्षण में नष्ट हो जाता है अनः उस का अनुव्यवसाय नहीं हो सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रथमक्षण में उत्पन्न घटज्ञान का 'घ जानामि' इसप्रकार का अनुव्ययमाय नहीं हो सकता क्योंकि यह ज्ञान आत्मा में घटविशेषित ज्ञानवैशिष्टय को विषय करता है अतः उम के पूर्व बटीय ज्ञानम्। इस प्रकार का ज्ञान अपेक्षित है। यह शान भी ज्ञानत्वविशिष्ट में घट के सम्बन्ध को ग्रहण करता है अतः उस से पूर्व विशेषणीभूत घट का और विशेष्यभूत ज्ञान का ज्ञान अपेक्षित है। इन शानों में घरमान प्रथमक्षण में उत्पन्न हो जाता है। दूसरे क्षण में घटीयवान-ज्ञानन्' इस प्रकार झानांश में निर्मितावच्छेदक घटप्रकारकज्ञानात्मक 'शान और ज्ञानत्व का निर्विकल्पक' प्रत्यक्ष होता है । तृतीयक्षण में 'घटीयं ज्ञानं' ऐसा शान होकर चतुर्थक्षण में ही 'घर जानामि' पेमा अनुव्यवसाय संभावित है।
किन्तु जब शान अपने तीसरे क्षण में ही नष्ट हो जाता है तब न तो तीसरे क्षण में 'शानं घटीयम्' यह शान और न चौथे क्षण में 'वटं जानामि' यह सान संभावित हो सकता है क्योंकि इन्द्रियसन्निकृष्ट हो एवं विद्यमान हो पेसी घस्तु का ही प्रत्यक्ष होता है। इस स्थिति में यदि तवधिशेष्यकत्व' विषयक उपस्थिति विरह से विशिष्ट व्यवसाय को प्रामाण्यप्रह के प्रति प्रतिबन्धक मान कर व्यवसाय के मनन्तर तद्वदविशेष्यकत्य' की उपस्थिति होने पर अनुन्यवसाय से म्यवसाय में प्रामाण्यज्ञान की बात की जाती है तो यह कैसे संभव हो सकती है !!!