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[शास्त्रबार्ताः स्त० १०.१५ संशयार्थमिदंत्वेन धर्मिभानावश्यकत्वाच्च । अथ विधेयताशालिनः स्वातन्त्र्येण वैशिष्टयज्ञानेऽनुव्यवसायसामग्या असामर्थ्य करप्यते, व्यवसायस्यैव वा प्रतिबन्धकत्वम् , तद्वद्विशेष्यकतोषस्थितेरुत्तेजकत्वाच्च तत्सत्वे प्रामाण्यमह इति चेत् ? नैतत् कमनीय, गौरवात्, व्यवसायनाशोत्तरं तद्महप्रसङ्गाच्च । अभ्यासस्य प्रामाण्याश्रयज्ञाने प्रामाण्यमणपरिणामहेतुत्वस्यैव कल्पयितुं युक्तत्वात् । न चेदेवम् , स्वप्रकाशवादोपदर्शितदिशा व्यवसायस्यैव क्षणिकत्वाद् नानुव्यवसायेन ग्रह्णमिति कैव कथा प्रामाप्योपस्थितिव्यवहिसस्य तस्य ? इति परिमावनीयम् ।
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व्यवसाय में पुरोवती का स्वरूपतः भान मानकर अनुव्यवसायात्मक विषयीभूत शान में प्रामाण्यमंशय के उपपादन का प्रयास क्लेश मात्र है ।
[सामग्री के असामर्थ्य या व्यवसाय के प्रतिबन्धकत्व की शंका ] यदि यह कहा जाय कि अनुम्यवसाय की सामग्री विधेय के स्वतंत्र रूप से होनेवाल सम्बन्धज्ञान में असमर्थ होती है । इसलिये अनुव्यवसाय से प्रामाण्य का ग्रहण नहीं हो सकता। आशय यह है कि अनन्यनसाय आत्मा में छानवशिश्य को विषय करता है इसन्टिये वह ज्ञान में विधेयरूप से प्रमात्य को ग्रहण नहीं कर सकता । वह इसलिय कि ज्ञान में विधेयरूप से प्रमात्व को ग्रहण करनेवाले ज्ञान का आकार 'अमुकविशेष्यकम अमुकप्रकारकशानं प्रमा-अमुक में अमुक का ज्ञान प्रमा है'-३स प्रकार होता है, उस में झान मुख्य विशेष्य होता है जब कि अनुव्यवसाय आत्ममुख्यविशेष्यक ज्ञानप्रकारक होता है, जिस का आकार 'असममुकविशेष्यकामुकप्रकारकशानवान' मैं अमुक में अमुक के वानवाला हूँ' इस प्रकार होता है। अनुव्यवसाय की सामग्री इस दूसरे आकार के ज्ञान को उत्पन्न करने में समर्थ होती है, पहले आकार के शान की उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होती। अत: अतुव्यवसाय को विधेयरूप में विषयक नहीं माना जा सकता, क्योंकि उस में ज्ञान विशेषण है. जब कि विधेय का भान विशेषण में नहीं किन्तु मुख्य विशेष्य में ही होता है।
अथवा यह भी कहा जा सकता है कि व्यवसाय स्वयं स्त्र में प्रामाण्यज्ञान का प्रतिबन्धक होता है। अतपय उस का अनुव्यवसाय प्रामाण्य विषयक नहीं हो सकता, क्योंकि अनुव्यवसाय व्यवसाय के रहते ही उत्पन्न होता है । जब कभी व्यवसाय के द्वितीयक्षण में प्रामाण्य की कुक्षि में प्रविष्ट तदवदविशेष्यकत्व की उपस्थिति हो जाती है अथवा व्यवसायकाल में किंवा व्यवसाय के अश्यरहितपूर्वक्षण में तद्वदविशेष्यकाव की उपस्थिति हो जाती है, सब व्यवसाय के तृतीय क्षण में अथवा व्यवसाय के द्वितीयक्षण में व्यवसाय में प्रामाण्यग्रह होता है इसलिये प्रामाण्य ग्रह के प्रति व्यवसायनिष्ठप्रतिबन्धकता में तद्यविशेप्यकत्व की उपस्थिति को उत्तेजक मानकर 'तदक्दाधिशेयकस्व की उपस्थिति के अभाव से विशिष्ट व्यवसाय को प्रामाण्यमह के प्रति प्रतिबन्धक मान कर उस की उपपत्ति की जा सकती है। और जब इस रीति से व्यवसाय में प्रामाण्यग्रहण हो जाता है तत्र व्यवसाय में प्रामाण्य का संशय नहीं होता । बद संशय तभी होता है जब तदवविशेष्यकत्व की उपस्थिति नहीं होती । अत: यह कहा जा सकता है कि अनुव्यवसाय से व्यवसाय में प्रामाण्य ग्रह का नियम न होने से प्रामाण्य का परत: ग्रहण- पश्न युक्तियुक्त है।