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________________ ५८] [ शासवार्ताः स्त० १०/१५ एतेन वस्तुतः तद्वद्विशेष्यकत्वे सति तत्प्रकारकत्वमानं न प्रामाण्यम् , रजत-शुक्ल्योः 'शुक्तिरजते' इत्यादिज्ञानसाधारण्यात् , किन्तु तदविशेष्यकत्वावच्छिन्नतत्प्रकारकत्वम् , तद्महे चानुव्यवसायसामग्रथा असामर्थ्यम्, व्यवसायो वा प्रतिबन्धकः, विशेषणतावच्छेदकीभूततद्विशेयकस्वज्ञानस्वात्र कारणत्वकल्पनाद् वा न प्रथमानुव्यवसायेन तद्ग्रहः' इति निरस्तम्, तत्प्रकारतावच्छिन्नतद्विशेप्यताकत्वस्य प्रामाण्यत्वेऽविनिगमात्, अनभ्यासे द्वितीयानुव्यवसायेनापि तदग्रहाच्च, [तद्विशेष्यकत्वावच्छिन्नतत्प्रकारकत्वरूप प्रामाण्य लेने पर निर्दोषता की शंका] यदि अनुत्र्यबसाय द्वारा प्रामाण्यग्रह हो जाने से व्यवसाय में प्रामाण्यसंशय की अनुगपत्ति का परिहार करने की दृष्टि से अनुव्यवसाय द्वारा प्रामाण्यग्रह की संभावना के निगस के लिये यह कहा जाय कि प्रामाण्य द्विशेष्यकत्ये सति तत्प्रकारकत्वमात्रस्वरूप नहीं हो सकता क्योंकि प्रामाण्य का यह स्वरूप मानने पर शुक्ति में रजतत्व को और रजत में शुस्तित्व को ग्रहण करनेवाले 'ये शुक्ति-रजत हैं' इस ज्ञान में प्रामाण्य की आपत्ति होगी । अतः प्रामाण्य को तद्वद्विशेष्यकत्यायचिछनतत्प्रकारकत्वरूप मानना आवश्यक है । और उस के ग्रहण में अनुव्यवसाय सामग्री समर्थ नहीं है अश्वा उस के ग्रहण में व्यवसाय प्रतिबन्धक है किंया उत्तप्रामाण्यप्रकारकवुद्धि में तद्विशेष्यकन्यरूप विशेषणतावच्छेदप्रकारकशान कारण है। अतः प्रथम अनुव्यवसाय से प्रामाण्य का शान नहीं हो सकता । कहने का आशय यह है कि सद्विशेष्यकत्यावच्छिन्नतत्प्रकारकत्य का अर्थ है भयच्छिन्नत्य सम्बन्ध से तद्विशेष्यकत्वविशिष्टतत्प्रकारकत्व, क्योंकि अच्छिन्नत्व को विशेषणरूर में प्रामाण्य का घटक माने तो पूर्व में अचच्छिन्नत्य विशेषण का शान न होने से प्रकाररूप में उसे विषय करनेवाले शान की उत्पत्ति न हो सकेगी। प्रामाण्य के उक्तस्वरूप को प्रकाररूप में ग्रहण करनेवाला ज्ञान नविशेष्यकत्वविशिष्टतत्प्रकारकत्व के वैशिष्टय का ग्राहक होता है । अतः विशिष्टपशिष्टच को ग्रहण करनेवाले ज्ञान में विशेषणतावच्छेवकप्रकारक शान कारण ज्ञान के जन्मक्षण या द्वितीयक्षण में तद्वद्विशेष्यकत्वरूप विशेषणतावच्छेदक का ज्ञान न होने के नाते तीसरे क्षण में ज्ञान में उतप्रामाण्य के ग्राहक अनुव्यवसाय की उत्पत्ति नहीं हो सकती। [निर्दोषता की आशंका का निरसन ] तो यह कथन भी निरस्त हो जाता है, क्योंकि सद्विशेष्यकत्व और तत्प्रकारकत्व के विशेष्यविशेषणभाव में कोई विनिगमना न होने से अवच्छिन्नत्व सम्बन्ध से "तद्विशेष्यकत्व. विशिष्ट तत्प्रकारकत्व' के समान उक्त सम्बन्ध से 'तत्प्रकारकत्वविशिष्ट तद्विशेष्यकत्व' को भी प्रामाण्य मानना होगा । फलतः पविष प्रामाण्य का निश्चय होने पर भी अन्य विध प्रामाण्य के संशय की आपत्ति होगी । दोनों को तुल्यसामग्रो से वेध मानकर दोनों के निश्चय की नियम से महोत्पति बता कर उक्त आपत्ति का परिहार नहीं किया जा सकता, क्योंकि पक में तद्विशेष्यकत्वरूप विशेषण के ज्ञान की अपेक्षा है और दूसरे में तत्प्रकारकत्यरूप विशेषण के ज्ञान की अपेक्षा है। उक्त दोनों विशेषणों को नियमत: सहधेच मानकर भी आपत्ति का परिहार नहीं किया जा सकता, क्योंकि उक्त आपत्ति का परिहार संभव होने पर भी नियमतः विविध प्रामाण्य के सहानुभत्र की आपत्ति होगी। इस आपत्ति को इष्टापत्ति नहीं माना जा सकता क्योंकि दोनों का मियत सहानुभव अनुभवविरुद्ध है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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