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________________ 1 [ शास्त्रवार्त्ता स्व० ६ श्लो० ४ क्षेत्र - काल - भावभेदेन शुद्धात्मस्वरूपावस्थानरूपस्य परः- उत्कृष्टः सर्वज्ञभाषितः वीतरागभणितः, नासर्वज्ञभाषितः, अभाषितो वह । अत्र 'मोaavat' इति तच्चपदेनान्याभिमतमोक्षस्याभावादेव तदुपायः शशशृङ्गोपायतुल्य इति ध्वनितम्। तथाहि - 'समानाधिकरणदुःखप्रागभावाऽसह वृत्तिदुःखध्वंस एव मोक्ष: ' इति नैयायिकमतं न रमणीयम् अतीतदुःखद् वर्तमानदुःखस्यापि स्वत एव नाशादपुरुषार्थत्वप्रसङ्गात् । न च हेतुच्छेदं पुरुषव्यापारः प्रायश्चित्तवदिति वाच्यम्, तथा सति दुःखानुत्पादस्य दुःखसाधनध्वंसस्यैव वा प्रयोजनत्वप्रसङ्गाव | , कारिका में मोक्ष को तत्व शब्द से अभिहित कर तत्वपद के प्रयोग से यह सूचित किया गया है कि जनेतर दार्शनिकों ने जिस मोक्ष का वर्णन किया है वह असत् है, अतः उसका उपाय शशशृंग के उपाय के समान असम्भव है। उदाहरण के रूप में कल्पलता व्याख्याकार ने सर्वप्रथम नैयायिक सम्मत मोक्ष की समीक्षा की है। [ मोक्ष का उपाय ज्ञान-दर्शन- चारित्र - उत्तर पक्ष ] air कारिका में उक्त आरोप के समाधान की बात कहो गई है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है मोक्षाभाव की आपत्ति के संदर्भ में मोक्षवादी जनों का कहना है कि मोक्ष का उपाय श्रवश्य हैं और वह है दर्शन - ज्ञान तथा चारित्र, यह उपाय हो मोक्षतत्त्व वास्तव मोक्ष की प्राप्ति का उत्कट साघन है, और वास्तव मोक्ष द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव-भेद से शुद्ध आत्मस्वरूप में जीव का प्रस्थान है, मोक्षतत्त्व का उक्त उपाय उत्कृष्ट इसलिये है कि उसे वीतराग सर्वेज भगवान् ने प्रतिपादित किया है, किसी असर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित अथवा तो सर्वथा प्रप्रतिपादित नहीं है । [ नैयायिक अभिमत मोक्ष की समीक्षा ] fast का मत है कि जो दुःखध्वंस अपने समानाधिकरण दुःखप्रागभाव का सहवर्तीअसमानकालिक होता है वह दुःखध्वंस ही मोक्ष है। मोक्ष की इस परिभाषा के अनुसार जो दुःखध्वंस अन्तिम होता है, जिसके बाद उसके अधिकरण आत्मा में दूसरा दुःखध्वंस नहीं उत्पन्न होता वही मोक्ष है, क्योंकि अन्तिम दुःखध्वंस हो ऐसा होता है जो अपने समानाधिकरण पूर्ववर्ती दुखः प्रागभाव का सहवर्ती नहीं होता । किन्तु जो दुःखध्वंस अन्तिम नहीं होता, जिसके बाद उसके अधिकरण आत्मा में अन्य दुःखध्वंस की उत्पत्ति होने वाली है वह समानाधिकरण दुःखप्रागभाव का सहवर्ती होता है, क्योंकि उसके बाद दुःखध्वंस होने के लिये उसके बाव दुःख को उत्पत्ति भी प्रावश्यक होती है और वह तभी सम्भव हो सकती है, जब दुःखध्वंस के समय उसके अधिकरण आत्मा दुःखप्रागभाव विद्यमान हो । कल्पलताकार ने इस नैयायिकमत को यह कहकर अरमणीय बताया है कि जैसे अतीत दुःख पुरुष प्रयत्न के बिना ही नष्ट हुआ है वंसे ही वर्तमान दुःख भी पुरुष प्रयत्न के चिना ही नष्ट हो जायगा, अत: पुरुष प्रयत्न से साध्य न होने के कारण दुःखध्वंस सामान्य पुरुषार्थ भी नहीं हो सकता.
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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