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स्या का टीका एवं हिन्दी विचन ।
मूल-अनापि वर्णयन्त्यन्ये विद्यते दर्शनाविकः ।
उपायो मोक्षतत्त्वस्य परः सर्वज्ञभाषितः ॥४॥ अत्र समाधानवार्तामाह--अन्नापि मोक्षाभाववादे वर्णयन्त्यन्ये-मोक्षवादिनो जैना:विद्यते दर्शनादिका दर्शन-ज्ञान-चरित्ररूपः उपाय: प्राप्तिहेतुः, मोक्षतत्त्वस्य-द्रव्य
इस कथन को अयुक्त बताने वाली तीसरी कारिका का प्रयं इस प्रकार है-'कर्म के हो स्वभाव बचिश्य से किसी कर्म को मोक्षोपाय-सम्पाविका परिणति कायाचिरक होती है' यह कथन युक्त नहीं है क्योंकि आप्त पुरुषों का कहना है कि कर्म को उस्कृष्ट स्थिति तथा 'प्रन्थिदेश की प्राप्ति से अवच्छिन्न अपकृष्ट स्थिति अनेक बार होती रही है अर्थात् कर्मस्थिति में कभी उत्कृष्टता और कभी अपकृष्टता होती रही है, ऐसी स्थिति में यदि अपकृष्ट स्थितिस्वभाववाले कर्म की परिणति को मोक्षोपाय का जनक माना जायगा तो अमव्य जीव को भी कम की उक्त परिणति सम्भव होने से उसे भी मोक्षोपाय का लाभ होते लगेगा क्योंकि अभव्यों को भी तीर्थकर आदि की विभूति के देखने से प्रन्थिदेश को अवाप्ति होने पर श्रुतसामायिक की प्राप्ति होना सुना जाता है।
उक्त दोष के अतिरिक्त प्रस्तुत पक्ष में एक यह भी दोष है कि मोक्ष के दर्शन आदि उपाय यदि स्वभावजन्य होंगे तो मोक्ष पुरुष-प्रयत्न से साध्य न हो सकेगा। अतः प्रतवाद में मोक्षोपाय के अनुष्ठान ययर्थ्य का जो दोष प्रदशित किया गया है, वह इस पक्ष में भी परिहत न हो सकेगा। दूसरा दोष यह है कि सर्वप्रथम यदि निगुण को हो गुण की प्राप्ति मानी जायगी तो उत्तर गुणों के लिये भी पूर्व गुण की अपेक्षा न होने से गुणस्थानक को कल्पना ही समाप्त हो जायगी । तीसरा दोष यह है कि जनों को सर्वमुक्ति का सिद्धान्त मान्य नहीं है, अतः प्रत्येक प्रेक्षावान् पुरुष को अपनो मोक्ष योग्यता के विषय में शडा हो जाने से मोक्षोपाय के अर्जन में विवेकी पुरुषों की निष्प्रतिबन्ध प्रवृत्ति न हो सकेगी। यदि यह कहा जाय कि-'शम, बम, विषयभोग में अनासक्ति आदि मोक्षार्थी के चिन्हों से जिसे अपनी मोक्षयोग्यता के विषय में शङ्का न होगो, वरना श्रद्धा होगो, मोक्षोपाय के अर्जन में उसकी प्रवृत्ति होने में कोई बाधा नहीं होमो'-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि शम आदि से सम्पन्न होने के निश्चय के अनन्तर मोक्षोपाय में प्रवृत्ति होगी और प्रवृत्ति के अनन्तर ही शम आदि की सम्पन्नता होने पर उसका निश्चय होगा। इस प्रकार उक्त उत्तर अन्योन्याश्रय दोष से प्रस्त है, इस दोष के कारण हो "शम आदि से सम्पन्न होने से मोक्षयोग्यता होती है" यह कथन भी निरस्त हो जाता है, साथ ही इसे मानने पर भन्यस्वनामक जातिविशेष के अभ्युपगम का भी विरोध होता है । १. ग्रन्थि है अनादिसिद्ध राग-द्वेष की निबिड दुर्भद्य परिणतिरूप गांठ, जिसको अपूर्वकरण ( अध्यवसायबल) से जब भेदी जाय तव सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है । इस ग्रन्थिभेदन के पूर्व कर्मों की
अन्तः कोटि-कोटि सागरापम वर्ष प्रमाण हो जाती है। यही प्रन्थिदेश है। किन्तु यह सभी
को होने पर भी अब इसमें भी स्थितिहास करके प्रस्थिभेदन कोई विरल ही आत्मा कर पाती है। बाकी सबके सब जीव ग्रन्थिदेश तक आवार अध्यवसाय मलिन कर वापस अधिक स्थितिबन्ध करने में चले जाते है। २. मोक्ष प्राप्ति के लिए सदा ही अयोग्य । ३. तीर्थकर या जैनाचार्य की वाणी का श्रवण रटण।