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स्था का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
न च चरमदुःखध्वंसेऽन्धय-व्यतिरेकाभ्यां तत्वज्ञानस्य प्रतियोगिवद् हेतुत्वम् , प्रतियोगिनमुत्पाद्य तेन तदुत्पादनात् , पुरुषार्थसाधनतया दुःख-तत्साधनयोरपि प्रवृत्तिदर्शनादिति वाच्यम् , चरमत्वस्यार्थसमाजसिद्धत्वेन कार्यतानवच्छेदकत्वात , अन्त्यदुःखे उपान्त्यदुःखस्यैव हेतुत्वेन तस्य तत्त्वज्ञानेनोत्पादयितुमशक्य न्याव , भोगेनैव कर्मणां नाशे नानाभवयोग्यकर्मणामेकभवे भोक्तुमशक्यत्वात् , तत्कर्मभोगस्य चाऽपूर्वकर्माजकत्वेनाऽनिर्मोक्षापातात् । न च तत्त्वज्ञानबलार्जितेन कायव्यूहेन तत्तत्कालकर्मभोगाद् नाऽनिर्मोक्ष इति सांप्रतम् , मनुजादिशरीरसत्त्वे शूकगदिशरीरोत्पादाऽयोगात् । देवादीनां तु क्रियशरीरादिकर्मोदयमहिम्नेव नानाशरीरश्रवणोपपत्तेरिति । फिर उसे मोक्षरूप चरम पुरुषार्थ मानने को कल्पना ही कैसे हो सकती है ? यदि यह कहा जाय कि"दुःख के उच्छेद में पुरुष-प्रयत्न की साक्षात् अपेक्षा न होने पर भी उसके उपपादक दु.खहेतु-उच्छेव में पुरुष-प्रयत्न को साक्षात् अपेक्षा होने से दुःखोच्छेद में भी दु:खहेतु-उच्छेवक द्वारा पुरुषप्रयत्न की अपेक्षा ठीक उसी प्रकार हो सकती है, जिस प्रकार पुरुषप्रयत्नापेक्ष प्रायश्चित्त के द्वारा प्रायश्चित्ताधीन पापनाश में पुरुषप्रयत्न की अपेक्षा होती है, अत: दुःखध्वस में पुरुषायस्व की अनुपपत्ति नहीं हो सकती"-तो यह कथन भी ठोक नहीं है, क्योंकि दुःखधंस यदि वलसाधनध्वंस के द्वारा पुरुषप्रयत्नसापेक्ष होगा तो वह पुरुष का प्रयोजन न हो सकेगा किन्तु बु.ख का अनुत्पाद अथवा दुःखसाधन का ध्वंस हो पुरुष का प्रयोजन होगा, क्योंकि जो पुरुष-प्रयत्न से साआत सम्पादित होता है वही पुरुष का प्रयोजन होता है ।
[ चरमदुःखध्वंसस्वरूप मोक्ष मानने में बाधा ] यदि यह कहा जाय कि-"चरम दुःख का ध्वंस हो मोक्ष है और वह ध्वंस तत्वज्ञान के होने पर उत्पन्न होता है तथा उसके न होने पर नहीं उत्पन्न होता, इस अवन्यष्यतिरेक से यह सिद्ध है कि तत्त्वज्ञाम उस ध्वंस का हेतु है, चरमदुःख-ध्वंस और तत्त्वज्ञान का यह कार्य-कारण भाव उक्त अन्वयव्यतिरेक से ठीक उसी प्रकार सिद्ध है जिस प्रकार घरमदुःख के होने पर उसका वास होता है और उसके न होने पर उसका ध्वंस नहीं होता, इस अन्वधाव्यतिरेक से चरमवुःखध्वंस और घरमःखस्वरूप प्रतियोगी का कार्य कारण भाष सिद्ध है। उक्त कार्य-कारण भाव के प्रामाणिक होने से यह मानना सर्वथा युक्तिसंगत है कि तत्त्वज्ञान चरमःख को उत्पन्न कर उसके नाश का उत्पादक होता है । यतः चरमवुःख और उसका जनक तत्त्वज्ञान चरमदुःखध्वंसरूप पुरुषार्थ का साधन है अतः उनके साधनार्थ पुरुष की प्रवृत्ति न्यायसंगत है क्योंकि जो दुःख और दुःख साधन पुरुषार्थ का साधक होता है उसमें पुरुष को प्रवृत्ति देखी जाती है जैसे ओदनार्थी पुरुष की दुःखबहुल पाकक्रिया में प्रवृत्ति सर्वविदित है।"
किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि दुःख का चरमत्व-अर्थसमाज अधीन है, जिस द.ख
न्तर का साधन सम्भव नहीं होगा वह दुःखान्तर के साधनाभाव से ही चरम हो जायगा अतः चरमश्वको तत्वज्ञान का कार्यतावच्छेदक नहीं माना जा सकता. अतएव घरमदःख के उत्पाद द्वारा तत्त्वज्ञान में चरमदुखध्वंस के साधनस्व का समर्थन नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त