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[ शास्त्रवार्त्ता स्व० श्लो० ४
"दुःखेनात्यन्तविमुक्तश्चरति" इति श्रुतिस्वरसाद् दुःखात्यन्ताभाव एव मुक्तिः, दुःखसाधनध्वंस एव च स्त्रवृत्तिदुःखस्याऽत्यन्ताभावसंवन्धः स च साध्य एव ं इति तदेकदेशिमतमपि न सांप्रतम् ; दुःखसाधनध्वंसस्य दुःखात्यन्ताभाव संबन्धत्वे मानाभावात् ।
'दुःखस्तोम एव मुक्तिः इत्यपि केषाञ्चित् तदेकदेशिन मतं वार्त्तम् ; स्तोमस्य
कथमध्यसाध्यत्वात् ।
दूसरी बात यह है कि उपान्ध्य दुःख से ही अन्त्य दुःख की उत्पत्ति सम्भव होने से तत्त्वज्ञान से उसकी उत्पत्ति का समर्थन नहीं किया जा सकता। तीसरी बात यह है कि कर्म का नाश एक मात्र भोग से ही सम्पादित होता है अतः जो कर्म प्रनेक जन्मों में भोग्य है, उसका नाश उस एक जन्म में, जिसमें, तत्त्वज्ञान का उदय होता है, नहीं हो सकता। साथ ही उस कर्म के भोग से नये नये कर्मों की उत्पत्ति भी होगी जिनके भोग के लिये नये नये जन्मों की अपेक्षा होगी, अतः चरमदुःखध्वंस के प्रसम्भव होने से उसे मोक्ष मानने पर मोक्षाभाव की प्रसक्ति होगी।
यदि यह कहा जाय कि तत्त्वज्ञान के प्रभाव से एक काल में प्राप्त अनेक शरीरों से एक ही जन्म में समस्त कर्मों का फलभोग सम्भव होने से मोक्षश्भाव को प्रसक्ति नहीं हो सकती' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि मनुष्य आदि शरीर रहते शूकर आदि शरीर की उत्पत्ति नहीं हो सकती, देवता आदि को एक ही समय अनेक शरीर धारण को जो बात सुनी जाती है वह क्रिय शरीर श्रादि के प्रारम्भक कर्म के उदय के बल से होती है, मनुष्य में उक्त बल नहीं होता अतः मनुष्य को एक काल में विभिन्न शरीरों का धारक नहीं माना जा सकता ।
[ दुःखध्वंस या दुखात्यन्ताभावरूप मोक्ष- एकदेशी ]
कुछ एकदेशी नैयायिकों का मत है कि-जीव दुःख से अत्यन्त विमुक्त होकर मोक्षोत्तर काल में अनुवर्तमान होता है, इस बात का प्रतिपादन करने वाली श्रुति के अनुसार दुःखों का अत्यन्ताभाव ही मुक्ति है और दुःखसाधनों का ध्वंस हो 'स्व' में विद्यमानदुःख के अत्यन्ताभाव का 'स्व' के साथ सम्बन्ध है और वह पुरुषप्रयत्न मे साध्य है, अतः दुःखात्यन्ताभाव के स्वरूपतः असाध्य होने पर भी सम्वन्धतः साध्य होने से उसमें पुरुषार्थत्व को अनुपपत्ति नहीं हो सकती, किन्तु यह मत भी समीचीन नहीं है क्योंकि 'दुःखसाधनों का ध्वंस खात्यन्ताभाव का सम्बन्ध है, इस बात में कोई प्रमाण नहीं है क्योंकि अत्यन्ताभाव का सर्वत्र स्वरूपसम्बन्ध हो युक्ति-सिद्ध है । कतिपय एकदेशी नैयायिकों का मत यह है कि 'दुःखध्वंस-समूह हो मोक्ष है । दुःखध्वंस समूह का अर्थ है एक जीव में जो-जो दुःखध्वंस होता है यह समग्र दुःखध्वंस, अतः कतिपय दुःखध्वंसों के समूह को लेकर संसारी जीव में मोक्ष की आपत्ति का उद्भावन नहीं किया जा सकता'- किन्तु यह मत भी तुच्छ प्रतीत होता है क्योंकि समग्र दुःखध्वंस में तत्वज्ञान के पूर्व उत्पन्न दुःखध्वंस का भी समावेश होने से समग्र दुःखध्यस तत्त्वज्ञान से साध्य नहीं हो सकता, अतः मोक्षार्थी के तत्त्वज्ञान का प्रयत्न निरर्थक होगा ।
* क्रियशरीर ऐसा शरीर जिससे विविध प्रकार की क्रिया ( संकोच विकासादि ) हा सकती है | काटने पर भी पुनः एकत्रित हो जाता है। देव और नारक को होता है ।