SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वा० क० टोका एवं हिन्दीविवेचन [c 'आनन्दमय परमात्मनि जीवात्मलयो मुक्तिः' इति त्रिदण्डिमतमपि न पेशलम् ; एकादशेन्द्रिय-सूक्ष्ममात्रात्रस्थितपश्चभूतात्मक लिङ्गशरीरापगमरूपलयस्य नामान्तरेण नामकर्मे क्षयरूपस्वादेव | यदि चोपाधिशरीरनाश औपाधिकजीवनाशो लयः, तदा तेन रूपेणाऽकाभ्यस्वादपुरुषार्थस्यात् । 'अनुपप्लवा चित्तसंततमुक्तिः' इति बौद्धबुद्धिरपि न सूक्ष्मा, संततेरवस्तुत्वेनाऽसाध्यस्वात् । न च संततिप्रतिक्षणानामेव पूर्वोत्तरभावेन हेतुहेतुमद्भावात् तत्साध्यत्वम्, संसारानुच्छेदप्रसङ्गात् सर्वज्ञज्ञानचरमक्षणस्यापि मुक्तज्ञानप्रथमक्षण हेतुत्वेन तत्संततिपतितत्यात् । अथ न हेतुफलभावमात्रादेक संततिव्यवस्था अपि तूपादान हेतुफलभावात् न च सर्वज्ञज्ञानस्य चरमण उपादानम् आलम्बनप्रत्ययो हि सः समनन्तरप्रत्ययश्वोपादानमिति चेत् ? न, तुल्यजातीयस्योपादानत्वे मुक्तचित्त सर्वज्ञज्ञानयोस्तुल्यजातीयतानपायात् सर्वज्ञज्ञान चरमक्षणस्वाद्यमुक्त चित्तानुपादानत्वे तस्यानुपादानस्यैवोत्पत्ते जांग गयप्रत्ययेऽप्युपादानानुमानोच्छेदाव अन्ययिद्रव्याभावे बद्ध-मुक्त व्यवस्थानुपपत्तेरिति । [ परमात्मा में आत्मा के लयस्वरूप मुक्ति - त्रिदण्ड ] त्रिदण्डी वेदान्तियों का मत है कि 'आनन्दमय परमात्मा में जीवात्मा का लय ही मुक्ति है । उनका आशय यह है कि परमात्मा ग्रानन्दमय है- आनन्द का सागर है, जीव उसका श्रंश होते हुये भी धनादिकाल से विविध दुःखों से पीड़ित है । अत: वह दुःखों से त्राण पाने के लिये श्रानन्द में निमग्न होने के आतुर है, किन्तु यह शरीर के भीतर बन्द है, अतः जैसे बोतल के भीतर बन्द जल बोतल को सरोवर में डाल देने पर भी सरोवर के मुक्त जलराशि में लीन नहीं हो पाता, उसी प्रकार शरीर में बन्द आनन्दमय परमात्मा का प्रानन्दांशरूप भी जीव परमात्मानन्द में लीन नहीं हो पाता । किन्तु जब वह शास्त्रोक्त उपायों द्वारा शरीर के बन्धन को तोड़ देता है, तब जैसे बोतल टूट जाने पर बोतल के भीतर का जल सरोवर के जल में लीन हो जाता है वैसे शरीरबन्धन के टूट जाने पर शरीर के भीतर जीव परमात्मा के आनन्दस्वरूप में लीन हो जाता है। इस प्रकार आनन्दमय परमात्मा में जीवात्मा का लय हो जीवात्मा का मुक्त होना है । किन्तु यह मत भी उचित नहीं है क्योंकि जीवात्मा के निजस्वरूप का लय तो सम्भव नहीं है अत पश्वज्ञानेन्द्रिय, पश्वकर्मेन्द्रिय, एक उभयेन्द्रिय मन और पञ्चतन्मात्रावों के रूप में अवस्थित पञ्श्वभूत इन सोलहों के गणरूप लिङ्ग शरीर को निवृत्ति को ही जीवात्मा का लय कहा जायगा और जब इस लय को मोक्ष कहा जायगा तो नामान्तर से नामकर्मों का क्षय ही मोक्ष के रूप में अभिहित होगा, प्रत जैन सम्मत मोक्ष से इसका मेव बताना वुष्कर होगा । यदि यह कहा जाए कि शरीरोपाधिक आत्मा ही जीव है अतः शरीररूप उपाधि के नाश से औपाधिक जीव का नाश होना ही जीवात्मा का लय है तो यह मो ठीक नहीं है, क्योंकि जीवनाश के रूप में जीवलय काम्य न होने से वह पुरुषार्थ न हो सकेगा । [ निरुपप्लव चित्तसन्तति मोक्ष-विज्ञानवादिबौद्ध ] ataria के एक विज्ञानवादी सम्प्रदाय का मत है कि उपप्लव - विषय से शून्य वित्त
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy