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[ शास्त्रवारी स्तश्लो०४
सन्तति-ज्ञान सन्तान ही मोक्ष है, इस मत का मर्म यह है कि ज्ञान हो सत्य वस्तु है, उससे भिन्न जो कुछ दीखता है वह सब अनादि वासना से कल्पित है, अतः ज्ञेय का प्रतिभास मिथ्या है । बौद्धमत में वरिणत रीति से साधना द्वारा प्रस्तुतस्व का ज्ञान हो जाने पर जेय अर्थ की कल्पक वासना का नाश होने से जान ज्ञेय के सम्बन्ध से शून्य हो जाता है। जो ज्ञानधारा ज्ञेय के साथ प्रवाहित होती थी यह अब ज्ञेयसम्पर्क से शून्य होकर विशुसज्ञानपारा के रूप में प्रवाहित होने लगती है, इस विशुद्ध जानधारा को ही 'अनुपालवा चित्तसन्तति' कहा जाता है । विज्ञानवादी बौद्ध के मत में यही मोक्ष है। व्याख्याकार यशोविजयजी ने यह कह कर इसे असंगत बताया है कि सन्तति कोई 'सद वस्तु न होने के कारण असाध्य है, अत: चित्तसन्तांत को माक्षरूप पुरुषार्थ मानना सम्मव नहीं है ।
पदि यह कहा जाय कि-'चित्तसन्तति मले चित्त से भिन्न कोई वरतु नहीं है किन्तु सन्तति के अन्तर्गत जो चित्तक्षण है, उनसे अभित्ररूप में उसका अस्तित्व तो है ही, प्रतः उन चित्तक्षणों में पूर्वोत्तरभाव के आधार पर परस्पर में हेतुहेतुमद्भाव होने से उन सभी में साध्यता होने के कारण उनसे अभिन्न जो उनको सन्तति है, उसमें भी साध्यता अपरिहार्य है, अतः असाध्य कहकर चित्तसन्तति को अपुरुषार्थ नहीं कहा जा सकता''- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यदि हेतुहेतुमद्धावापन्न अनुपालव चिस-क्षणों को मोक्ष कहा जायगा तो मोक्षकाल में संसार के अस्तित्व को आपसि होने से संसार के अनुच्छेव की प्रसक्ति होगी, क्योंकि सबंज्ञान का चरमक्षण यह मुक्तचित्त के आद्यक्षण का हेतु होता है अतः हेतु तथा हेतुमान् क्षणों का एक सन्तान होने से वे दोनों एक सन्तान के घटक हो जायेगे. फलसः मुक्तचित्त सन्तान में सर्वज्ञान के परमक्षणरूप सांसारिक वस्तु का समावेश हो जाने से उसे मोक्षस्वरूप मानना उचित न होगा।
यदि इस दोष का परिहार यह कह कर किया जायगा कि-"जिन क्षणों में सामान्य हेतुहेतुम. द्भाव होता है, उन क्षणों का एक सन्तान नहीं होता, अपितु जिन क्षणों में उपादान-उपावेयभाव होता है उन क्षणों का हो एक सन्तान होता है, सर्वज्ञज्ञान का चरमक्षण आद्यमुक्तिचि आलम्बनात्मक कारण है, समनन्तर कारण नहीं है और जो जिसका समनन्तर कारण होता है वही उसका जपावान कारण होता है, अतः सर्वज्ञज्ञान के चरमक्षण और आध मुक्तचित्तक्षण में उपादानउपादेय भाव न होने से उन दोनों को एक सन्तान का घटक नहीं माना जा सकता, फलतः अनुपप्लव वित्तसन्तति को मोक्ष मानमे पर उसमें संसार का सम्बन्ध न होने से मोक्ष में संसार के अनुच्छेद को प्रसक्ति नहीं हो सकती।
इस मत का आशय है कि-बौद्धमतानुसार मनुष्य को मुक्ति सर्वज्ञताप्राप्तिपूर्वक होती है। मनुष्म पहले सर्वज्ञ होता है बाद में मुक्त होता है । सबंज्ञशान-सर्वग्राही ज्ञान के चरम क्षण की निवृत्ति के साथ साथ अनुपप्लव बिससन्तति का प्रारम्भ होता है। सर्वज्ञज्ञान का चरमक्षण सन्ततिघटक प्रथम चित्त का पालम्बन कारण होता है। उसका कोई समनन्तरप्रत्यय-उपादान कारण नहीं होता, क्योंकि समनन्तर का अर्थ है "सजातीय-समानापोह्य, समानाधिकरण एक सन्तति घटक, प्रत्यवहित पर्यवर्ती और ऐसा कोई आद्य मुक्त चित्त के लिये सम्भव नहीं है, अतः वह बिना उपादान के ही १. बौद्धमत में यत् सत् सत् क्षणिकम्'-जो क्षणिक है वही सत् है, सन्तति तो क्षणों तक चलती
धारा होने से क्षणिक-क्षणस्थायी नहीं, अतः सत् नहीं।