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________________ स्थाक० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] [११ 'स्वातन्त्र्यं मुक्तिः' इत्यपरेषां मतमपि न क्षोदक्षमम् , तद् यदि कर्मनिवृत्तिरेव तदा सिद्धान्तसिन्धावेव निमञ्जनात् । यदि चैश्वर्य मेव तत् , तदाऽभिमानाधीनतया तस्य संसारविलसितत्वात् । 'प्रकृति-तद्विकारोपधानविलये पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्षः' इति सांख्यमतमपि न निमलसंख्यासमुज्जम्भितम् , स्वरूपावस्थानस्य कूटस्थात्मरूपस्याऽसाध्यत्वात् , प्रकृत्यादिप्रक्रियाया प्रमाणाभावाच । उत्पन्न होता है । यतः उपादान-उपादेयभाधापन क्षणों का हो एक सन्तान होता है, प्रत: सर्वज्ञज्ञान के घरमक्षण पार पाय मुक्तचित का एक सन्तान न होने से मुक्तचित सन्तान में संसार का समावेश नहीं हो सकने से उसे मोक्ष मानने पर संसारानुच्छेव की आपत्ति नहीं हो सकती।"-- किन्तु यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि कार्य के तुल्यजातीय के हो उपादान होने का नियम होने पर भी सर्वज्ञान के घरमक्षण में आच मुक्तचित्त को उपादानता का परिहार नहीं हो सकता क्योंकि सर्वज्ञान का घरमक्षण और प्राद्य मुक्तचित्त दोनों ही ज्ञानात्मक होने से तुल्यजातीय हैं । दूसरी बात यह है कि यदि आद्य मुक्तचित्त उपादान कारण के बिना ही उत्पन्न होगा तो जागर आदि ज्ञान को भी निरुपादान उत्पत्ति सम्भव होने से उनके उपादानकारण के अनुमान का उच्छेद हो जायगा इसके साथ ही तीसरी बात यह है कि बौद्धमत में बन्ध-मोक्ष उमयकाल में किसी अन्ययी द्रव्य की सत्ता न होने से बद्धमुक्त की व्यवस्था -जओ बद्ध होता है वहीं मुक्त होता है, इस नियम की उपपत्ति न हो सकेगी। [मुक्ति स्वातन्त्र्यस्वरूप है ] ___ अन्य दार्शनिकों का मत है कि स्वातन्त्र्य ही मुक्ति है, संसारदशा में मनुष्य परतन्त्र होता है । 'सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मयशं सुखम्' इस न्याय के अनुसार संसारी मनुष्य अनादिकालिक पारतन्ध्य से पीड़ित है, दुःखी है, अत: शास्त्रोक्त साधनों द्वारा पारतन्त्र्य को दूर कर स्थातव्य प्राप्त करना ही मनुष्य को मुक्ति है।"-किन्तु व्याख्याकार के अनुसार यह मत नी विचार द्वारा उपपन्न नहीं होता, क्योंकि स्वातन्त्र्य का अर्थ यदि कर्म-निवृत्ति माना जायगा तो इस मत बिन्दु का जैन वर्शन के सिद्धान्तसिन्धु में ही प्रवेश हो जायगा क्योंकि जनवर्शन के सिद्धान्तानुसार समग्र कर्मों का क्षय हो मोक्ष है। यदि उक्त दोष के भय से कर्मनिवृत्ति को स्वातन्त्र्य न मानकर ऐश्वर्य को स्वातन्त्र्य माना जाय, और ऐश्वर्य की प्राप्ति को मोक्षप्राप्ति के रूप में वर्णित किया जाय, तो यह मो उचिस नहीं हो सकता क्योंकि-जीव में वास्तव ऐश्वयं न होने से आभिमानिक ही ऐश्वर्य मानना होगा और जब उसे ईश्वराभिमान होगा तब वह मुक्त कैसे हो सकेगा क्योंकि अभिमान संसार का ही एक विलास है, सांसारिकता का ही एक रूप है। [प्रकृति और उसके विकारों का विलय मुक्ति-सांख्य ] सांख्य दर्शन का मत है कि-"प्रकृति तथा उसके विकाररूप उपाधि का विलय होने पर पुरुष का अपने वास्तव स्वरूप से प्रवस्थान ही मोक्ष है। आशय यह है कि सांत्य दर्शन के अनुसार प्रकृति
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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