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[ शास्त्रवार्ता स्त० ९ग्लो ४
'अग्रिमचिनानुत्पादे पूर्वचित्तनिवृत्तिमु क्तिः' इत्यन्येषां मतमपि कुधासनाविलसितम् , अग्रिमचित्तानुत्पादम्य प्रागभावरूपस्याऽसाध्यत्वात् , चित्तनिवृत्तेरनुद्देश्यत्वाच्च ।
'आत्महानं मुक्तिः' इति पापिष्ठ मतमपि पिष्टमेव, वीतरागजन्माऽदर्शनन्यायेन नित्यतया सिद्धस्यात्मनः सर्वथा हातुमशक्यत्वात् , आत्महानस्यानुद्देश्य त्वाच्च । और पुरुष ये दो ही कारणनिरपेक्ष अनादि तत्व हैं, इनका संयोग पानी परस्पर भेव का अविवेक= अज्ञान अनावि है, वही सत्व, रजस् और तमस इन गुणों से प्रभिन्नस्वरूपा प्रकृति के महत्तत्त्व, प्रकार, HER, स्पर्श, रूप, रस, गन्धनामक पांच तन्मात्र-सुक्ष्ममत, श्रोत्र, त्वक, चक्ष, रसन, प्राण नामक पांच शानेन्द्रिय; याक, पाणि, पाव, पायु = मलेन्द्रिय, उपस्थ=मून्द्रिय नामक पांच कमेन्द्रिय, उभयेन्द्रिय मन और आकाश, वायु, सेज, जल और पृथ्वी नामक पांच महाभूत इन तेईस विकारों को उत्पन्न करता है। प्रकृति के यह तेईस विकार तथा स्वयं प्रकृति और पुरुष ये पच्चीस सांस्यसमम्त तत्त्व हैं। प्रकृति और पुरुष में अविवेक होने से प्रकृति के प्रथम विकार महतत्तत्व और पुरुष में भी अधिक होता है।महतत्तत्त्व, सरव-अन्तःकरण आदि शब्दों से व्यपविष्ट होता है और यही कर्तृत्व तथा कर्तृत्वाधीन अन्य सभी धर्मों का आश्रय होता है। पुरुष में उसका अविवेक होने से पुरुष में उसके सभी धर्मों का प्रतिभास होता है, पुरुष में महत्त्तत्व के धर्मों का यह अविवेकमूलक प्रतिभास ही पुरुष का बन्धन है, इस बन्धन के कारण संसारदशा में पुरुष अपने निज रूप से अवस्थित न होकर महतत्तत्त्व के औपाधिकस्वरूप से अवस्थित होता है किन्तु जब प्रकृतिपुरुष के विवेक का उदय होने से उनके अविवेक की निवसि होती है तब प्रकृति और उसके विकाररूप उपाधि का विलय हो जाने से पुरुष औपाधिकरूप से असम्पृक्त होकर अपने वास्तव स्वरूप से अवस्थित हो जाता है । पुरुष का यह स्व-स्वरूपायस्थान ही उसका मोक्ष है।"
ध्याल्याकार कहते हैं कि सांख्य का यह मत निर्मल संख्या विशुद्ध बुद्ध पर आधारित नहीं है, क्योंकि पुरुष का स्वस्वरूपावस्थान कूटस्थपुरुषरूप होने से असाध्य है और जो असाध्य है वह पुरुषार्थ नहीं हो सकता । दूसरी बात यह है कि प्रकृति, महत्तत्व आदि के सम्बन्ध में जो प्रक्रिया बताई गई, उसमें कोई प्रमाण नहीं है प्रतः अप्रामाणिक प्रक्रिया के आधार पर बन्ध और मोक्ष की कल्पना युक्तिसंगत नहीं हो सकती।
[अग्रिमचित्तानुत्पादसहित पूर्वचित्तनाश मुक्ति-बौद्ध ] कतिपय बौद्धमनीषियों का मत है कि अग्निमचित्त के अनुत्पाद से विशिष्ट पूर्व चित्त को निवृत्ति ही मोक्ष है । कहने का प्राशय यह है कि. "चित्त ही अस्तिरूप में बन्धन है और वही नास्तिरूप में मोक्ष है।" पर ज्ञातव्य है कि सामान्य रूप से चित्तनिवृत्तिमात्र को मोक्ष नहीं माना जा सकता क्योंकि संसारवशा में भी नये नये चित्तों की उत्पत्ति के साथ पूर्व पूर्व वित्तों को निवृत्ति होती रहती है, प्रतः संसारदशा में होने वाली चित्तनिवृत्ति के द्वारा उस वैशा में भी मनुष्य में मुक्तत्व को प्रापलि होगी "अत: चित्तनिवृत्तिमात्र को मोक्ष न मानकर अग्रिमधित के अनुस्पाव से विशिष्ट पूर्वचित्तनियुक्ति को ही मोक्ष मानना न्यायसंगत होगा, ऐसा मानने पर संसारदशा में मोक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि उस दशा में अग्रिमचित्त का अनुत्पाद नहीं होता।"-व्याल्याकार कहते हैं कि यह