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स्या क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
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'नित्यनिरतिशयसुखाभिव्यक्तिम क्तिः' इति तौलातितमतमपि नातिचतुरस्रम् , एकान्ततः सुखस्य नित्यत्वे संसारदशायामपि तदभिव्यक्तिप्रमगाट, मुखमात्रस्य वमोचरसाक्षा
कारजनकत्वनियमान, तज्ज्ञानस्याप्यभिव्यक्तिरूपस्य नित्यत्वात् , “नित्यं विज्ञानमानन्द ब्रह्म” इति श्रुत्या ज्ञान-सुख योर भेदबोधनात् । अनित्यज्ञानरूपतदभिव्यक्तेर्दोषाभावसाध्याया उपगमे तस्या नाशनियमेन मुक्तस्य पुनरावृत्तिप्रसङ्गात् । तदभिव्यक्तिप्रवाहस्य च शरीरादिहेत्रपेक्षा विनाऽनुपपत्तेः । उपपत्तों का एकस्या एवं तदभिव्यक्तेदोषाभावजन्यायाः, सुखस्य च तादशस्य तावदमवस्थानौचित्यात । मत मी कुवासनामूलक ही है । कारण यह है कि अग्रिमचित्त के अनुत्पाद का अर्थ है अग्रिचित्त का प्रागभाव, असः प्रागभाव प्रनादि होने से असाध्य होने के कारण प्रागमाव से घटित उक्त मोक्ष भी असाध्य हो जायगा । यदि किसी प्रकार चित्तोत्पादक के अभाव से चित्त की अनुत्पत्ति बता कर चित्तप्रागभाव में क्षमिक साध्यता यानी परिपात्यतारूप साध्यता को उपपत्ति की जाय, तो उक्त दोष का वारण हो जाने पर भी उसे पुरुषार्थ नहीं माना जा सकता क्योंकि वह पुरुषप्रवृत्ति का उद्देश्य नहीं है।
'आत्मा का अस्तित्व ही बन्धन है अत: आत्मा का हान हो यानी आस्मा का स्वरूपनाश ही मोक्ष है' यह अत्यन्त पापिष्ठ मत है। ध्यात्या के अनुसार यह मत भी मदित प्राय है क्योंकि वोतराग का जन्म नहीं देखा जाता किन्तु सराग का ही जन्म देखा जाता है, प्रतः आत्मा को नित्य मानना अनिवार्य है, और अब आत्मा नित्य है तब उसका हान कयमपि सम्भव नहीं हो सकता । दूसरी बात यह है कि आत्महान किसी पुरुष का उद्देश्य नहीं होता, अतः उसे पुरुषार्थ कहना कथमपि संगत नहीं हो सकता।
[नित्यनिरतिशयसुख की अभिव्यक्ति मोक्ष-मीमांसक ] मीमांसादर्शन के सप्रदाय का मत है-कि "विषयेन्द्रिय सम्पर्फ से उत्पन्न होने वाले सुख से मिन्न भी सुख होता है जो नित्य और निरतिशय होता है, मिरतिशय का अर्थ है अतिशय से शून्य, जिससे अधिक दूसरा न हो, जो सर्वश्रेष्ट हो, ऐसे सुख को अभिव्यक्ति, ऐसे अनादि-अनन्त महत्तम सुख का प्रत्यक्ष अनुभव ही मुक्ति है।" मीमांसा दर्शन के कुमारील भट्टसम्प्रदाय का यह मत मो समोचोन नहीं है, क्योंकि मोक्षसुख यदि एकान्त नित्य होगा तो संसारक्शा में भी उसकी अभिव्यक्ति को प्रसक्ति होगी, इस प्रसक्ति के कई कारण हैं, जैसे पहला कारण यह है कि जितना भी सुख होता है वह सब अपने साक्षात्कार का जनक होता है, यह नियम है; मोक्ष सुख नित्य होने से यतः संसार वशा में भी है अतः उस यशा में भी उक्त नियम के अनुसार उसका साक्षात्कार होना अपरिहार्य है। दूसरा कारण यह है कि निस्य सुख को अभिव्यक्ति नित्यसुख के ज्ञानस्वरूप होने से नित्य है, क्योंकि 'ज्ञान और आनन्द से अभिन्न ब्रह्म निस्य है' इस तथ्य की प्रतिपाविका श्रुति से नित्य ब्रह्म के रूप में सुख और ज्ञान के प्रमेव का बोध होता है, अत: नित्य सुख से अभिन्न नित्यसुखज्ञानरूप अभिध्यक्ति की निस्यता के कारण संसारदशा में नित्य सुख की अभिव्यक्ति का होना अनिवार्य है।