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________________ १४ ] [ शास्त्रयाता स्त० श्लो० ४ एतेन 'अविद्यानिवृत्ती विज्ञान-सुखात्मकः केवल आत्मैवापवर्गः' इति वेदान्तिमतमपि निरस्तम् , ज्ञानसुखात्मकब्रह्मणो नित्यत्वे मुक्त-संसारिणोरविशेषापातान् , अविद्याया असत्त्वेन नित्यनिवृत्तत्वाच्चेति दिग। यदि यह कहा जाय कि-"नित्य सुख को अभिव्यक्ति नित्यज्ञानरूप नहीं किन्तु अनित्यज्ञानरूप है और उसकी उत्पत्ति संसारजनक दोष के अभाव से होती है, प्रत: संसारवशा में संसारजनक दोष का प्रभाव न होने से उस दशा में नित्यसुख की अनित्यज्ञानात्मक अभिव्यक्ति की प्रापत्ति नहीं हो सकती"-तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि जो जन्य होता है उसका नाश अवश्य होता है इस नियम के अनुसार नित्यसुख के अनित्यज्ञानात्मक अभिव्यक्ति रूपा मुक्ति का नाश अनिवार्य होने से मुक्त के पुर्नजन्म की मापत्ति होगी । इसके उत्तर में यदि यह कहा जाय कि-'यह दोष नित्य सुख की अनित्यज्ञानात्मक एक अभिव्यक्ति को मुक्ति मानने पर ही हो सकता है, अभिव्यक्तिप्रवाह को मुक्ति मानने पर नहीं हो सकता तो-यह भी ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि अभिव्यक्ति प्रवाह को शरीर आदि हेतुधों की अपेक्षा होतो है प्रतः मोक्ष दशा में उन हेतुबों का अमाव होने से अभिव्यक्ति प्रवाह की उपपत्ति नहीं हो सकती, यदि लिटा चुस्न को अभिव्यक्ति का शरीर प्रावि से जन्म न मानकर केवल संसारजनक दोष के अभाव से हो जन्म मानकर उसके प्रवाह की उपपत्ति को जायगी तो प्रधाहोपपत्ति का प्रयास निरर्थक होगा और साथ ही सुख के नित्यत्त्व का अभ्युपगम भी अनावश्यक होगा क्योंकि संसारजनकदोषाभाष से सुख और सुखाभिव्यक्ति की उत्पत्ति मानकर एक हो सुख और एक ही सुखाभिव्यक्ति की स्थिति सुदीर्घ कालतक मानना उचित हो सकता है क्योंकि ऐसा मानने में कल्पनालाघव है। इस सन्दर्भ में यह बात ध्यान देने योग्य है कि सुख और सुख-ज्ञान आत्मा का जन्य विशेषगुण है और प्रात्मा के जन्य विशेषगुण की उत्पत्ति प्रात्मा के साथ शरीर आदि का सम्बन्ध होने पर हो होती है, अतः शरीर आदि के बिना केबल संसारजनकदोषाभावमात्र से सुख और सुखाभिव्यक्ति की उत्पत्ति नहीं मानो जा सकती, क्योंकि यदि सुख प्रादि को उत्पत्ति शारीर आदि के बिना भी सम्भव मानी जायगी तो संसार दशा में भी आत्मा के साथ शरीर प्रादि का सम्बन्ध अनावश्यक होगा क्योंकि जैसे मोक्ष सुख और उसका ज्ञान शरीर आदि के अभाव में भी केवल संसार-जनक दोषाभाष से उत्पन्न होगा, वैसे ही संसारकालिक सुखावि की भी उत्पत्ति शरीर आदि के बिना ही केवल संसारजनकदोषमात्र से मानी जा सकती है। [ अविद्या निवृत्त होने पर केवल आत्मस्वरूप मुक्ति-वेदान्ती ] वेदान्ती दार्शनिकों का मत है कि अविद्या को निवृत्ति होने पर ज्ञानसुखस्वरूप केवल आत्मा ही अपवर्ग-मोक्ष है ! उनके मत का स्पष्ट रूप यह है कि प्रात्मा ज्ञानस्वरूप और सुखस्वरूप है तथा एकान्त नित्य है, एकमात्र उस एक तत्त्व की ही पारमार्थिक सत्ता है। वह प्रनादिकाल से अविद्या से उपहित है। अविद्या का अर्थ है माया-प्रज्ञान, जो सत्व, रजस् और तमस इन तीन गुणों से अभिन्न है । वह न त्रिकालाबाध्यरूप में सद है और न शशशृंग आदि के समान काल मात्र से असम्बद्ध रूप में असत् है । अतः वह आत्मा के समान सद् रूप में, तथा शशशृङ्ग आदि के समान असद् रूप में
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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