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________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] द्रव्याऽग्राहकम् , रूप-स्पर्शाऽग्राहकथहिरिन्द्रियत्वात् रसनवत्' इत्यनुमानेन श्रोत्रस्य द्रव्याऽग्राहकत्वसिद्धेः । अपि च, शब्दो न द्रव्यम्, एकद्रव्यत्वात्, रूपादिवत् । एकद्रव्यत्वं च तत्र 'एकद्रव्यः शब्दः, सामान्यविशेषवत्त्वे सति वाह्य केन्द्रियप्रत्यक्षत्वात् , रूपादिवत्' इत्यनुमानेन सिद्धम् । न च वायो न्यभिचारः, तस्य बायन्द्रियाऽप्रत्यक्षत्वाद् मूर्तप्रत्यक्षत्वस्यैव संग्राहकत्वलाघवेनोद मृतरूपकार्यतावच्छेदकत्वात् , द्रव्यचाक्षुषत्वस्य तथात्वे गगनादिस्पार्शनवारणाय द्रव्यस्पार्शनं प्रत्युद्भूतस्पर्शत्वेन हेतुत्वे स्पर्शत्वप्रवेशे गौरवात् , अनुभूतत्वामावकूट-स्पर्शत्वयोर्विशेप्यविशेषणभावे विनिगमनाविरहात् । मम तु स्पर्शनिष्ठानुभूतावच्छिन्नप्रतियोगिताकानुद्भताभावयूटत्वनव हतुत्वात्, गगनादौ रूपाभाबादेव स्वाचापत्तेरभावात् , सामान्यसामग्रीमादायैव विशेषसामयाः कार्यजनकत्वनियमात् । अपि च एवं बगिन्द्रियवृत्त्यनुभूताभावस्याप्यनिवेशालाघवम् । हो सकती, इसलिये इस अनुमान से उक्त सम्बन्ध के घटक रूप में उक्त भेदाष्टक तथा प्रध्यत्व इन दोनों के आश्रय भूत आकाश की सिद्धि सुकर हो जाती है। [शब्द को द्रव्य मानने में बाधक और संकट ] निष्कर्ष यह है कि जब उक्त रीति से परिशंषानुमान द्वारा शब्द में आकाशगुणत्व सिद्ध है तो यह द्रव्य कैसे हो सकता है ? यहाँ इतना ही नहीं समझना है कि गुणत्व शब्द में व्रत्यत्व की सिद्धि में बाधक है, अत: उसे द्रव्य नहीं माना जा सकता, अपितु यह भी समझना है कि उसे प्रध्य मानने में संकट भी है। जैसे शरद यदि द्रव्य होगा तो श्रोत्र से उसका ग्रहण न हो सकेगा क्योंकि श्रोत्र द्रव्य का ग्राहक नहीं होता । यह बात अनुमान से सिद्ध है जैसे 'श्रोत्र द्रष्य का अग्राहक है क्योंकि रूप और स्पर्श का अग्राहक बहिरिन्द्रिय है, असे रसनेन्द्रिय ।' शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि न होने का दृप्सरा कारण है शब्द में द्रव्यभिन्नत्व की सिद्धि, जो इस अनुमान से सम्पन्न होती है कि 'शब्द द्रव्य से भिन्न है क्योंकि एक द्रव्यमाघ में आश्रित है जैसे रूप आदि । शब्द एकद्रव्यमात्र में आश्रित है, इस बात की सिद्धि इस अनुमान से होती है कि-'शब्द पक्रव्यमात्र में आभित है क्योंकि सामान्य विशेष-परापर जाति का आश्रय होते हुये केवल एक बहिरिन्द्रिय से जन्य प्रत्यक्ष का विषय है, जैसे रूप आदि ।' [एकद्रव्याश्रित्य हेतु वायु में व्यभिचारी होने की शंका का निरसन ] यदि यह शङ्का हो कि 'उक्त हेतु, वायु में पकद्रष्यत्य का व्यभिचारी है अतः उस हेतु से शब्द में एक द्रव्यत्व का अनुमान नहीं हो सकता' तो इस का उत्तर यह दिया जा सकता है कि वायु के अप्रत्यक्ष होने से उक्तहेतु वायु में नहीं प्रतीत रहता, अतः यह घायु में साध्य का व्यभिचारी नहीं हो सकता । बायु में उक्त हेतु के न रहने का कारण यह है कि मृत प्रत्यक्षसामान्य में उभृतरूप कारण है, यदि वायु का प्रत्यक्ष होगा तो यह भी मूर्तप्रत्यक्ष होगा, अत: वह उदभूतरूपहीन वायु में नहीं उत्पन्न हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-' उदभूतरूप को मूर्तप्रत्यक्षसामान्य का कारण मानना नियुक्तिक है, वह तो द्रव्यचाक्षुष का ही कारण है, इसलिये वायु के स्पार्शनप्रत्यक्ष में उतरूपहीनता बाधक नहीं हो सकती, अतः वायु में उक्त हेतु सम्भव
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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