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{शावात स्त० १०/३६ हेतु रखा जाय तो गन्ध आदि में वह साध्य का व्यभिचारी हो जाता है। अत: हेतु के शरीर में पृथ्वी आदि आठ द्रव्यों में अनाभितत्व का निवेश आवश्यक होता है। उक्त विशिष्ट हेतु के शरीर में प्रविष्ट द्रव्याधितत्व अंश शब्द रूप पक्ष में गुणत्व हेतु से सिम होता है और पृथ्वी आदि आठ द्रव्यों में अनाश्रितत्य अंश निम्न बीन अनुमानों से सिद्ध होता है।
(२) शब्द पृथ्वी जल तेज और घायु में अनाश्रित है यह बात इस अनुमान से सिद्ध होती है कि शब्द स्पर्शवान् व्रव्य (पृथिवी, जल, नेज और यायु) का गुण नहीं है क्योंकि पाक से अमन्य एवं कारण गुणजन्य से भिन्न तथा प्रत्यक्षत्य का विषय है. जसे सुख आदि आत्मगत योग्य गुण । इस हेतु में प्रथम अंश पाकजन्य रूप आदि में, वृसरा अंश अवयश्गुणजन्य अवयवी के गुण में और तीसरा अंश जलपरमाणु आदि के रुपाधि में व्यभिचार के बारणार्थ प्रविष्ट है।
(२) शब्द विक, काल और मन इन तीन द्रव्यों में भी अनाश्रित है यह इस अनुमान से सिद्ध होता है कि शरद विक्, काल और मन का गुण्य नहीं है क्योंकि विशेष गुण है, जैसे रूप आदि।
शब्द में विशेषगुणत्व भी अनुमान से सिद्ध होता है से 'शब्द विशेष गुण है क्योंकि चक्षु से प्रत्यक्ष होने के अयोग्य तथा बहिरिस्क्रिय ते प्रत्यक्ष हो योर (शान्य जातिका आश्रय है, जो उक्तषिध जाति का आभय होता है, वह विशेषगुण होता है जैसे उक्त विध स्पर्शत्व जाति का आश्रय स्पर्श । 'विशेषगुणत्य' का अर्धं है 'न्याय किंचा वैशेषिक दर्शन में विशेष गुण शब्द से परिभाषितत्व' । उक्त दर्शनों में विशेष गुण शब्द रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, स्नेह, सांसिद्धिक द्रवत्व, शब्द, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म तथा भावनाख्य संस्कार इन सोलह गुणों में परिभाषित है।
(३) शब्द आत्मा में भी अनाश्रित है, यह बात इस अनुमान से सिद्ध होती है कि शब्द मात्मा का गुण नहीं है क्योंकि यहिरिन्द्रिय से ग्राह्य गुण है जैसे रूप आदि । ___ उक्त तीन अनुमानों से शब्द में क्रमशः पृथिवी आदि चार द्रव्यों में तथा दिक, काल, मन में एवं आत्मा में अनाधितत्व सिद्ध होने से पृथिवी आदि आट द्रव्यों में अनाश्रितत्व सिद्ध हो जाता है अतः उक्त विशिष्ट हेसु (पृथिवी आदि अष्ट व्रव्यों में अनाश्रितत्व से विशिष्ट द्रव्याश्रितत्व) से शब्द पृथिवी आदि अग्र द्रव्यों से भिन्न द्रव्य में आधिसत्व की सिद्धि होती है। इस प्रकार पृथिवी आदि माठ द्रव्यों से भिन्न जो द्रव्य शब्द के आश्रय रूप में सिद्ध होता है उसी को आकाश कहा जाता है।
[ साध्याप्रसिद्धि की शंका का निरसन ] उक्त साध्य के विषय में भी यह प्रश्न उठ सकता है कि-'उक्त परिशेपानुमान के पूर्व पृथिषी आदि अष्ट ध्यों से भिन्न प्रध्य न सिद्ध होने से उससे घटित उक्त साध्य अप्रसिद्ध है। अतः उसकी अन्वय व्याप्ति किंवा व्यतिरेक व्याप्ति का ज्ञान सम्भव न होने से उसका अनुमान कैसे हो सकता है ?--तो इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि पृथिवी आदि अष्ट द्रव्यों से भिन्न द्रव्य में आश्रितत्व यथाश्चत रूप में साध्य नहीं है । किन्तु, उसके स्थान में स्वाश्रयाश्रितत्व सम्बन्ध से पृथिवीभेद. जलभव आदि भेदाधक तथा व्यत्य यह उभय साध्य है । उक्त सम्बन्ध कपालत्य आदि के सम्बन्ध रूप में प्रसिद्ध है. साध्य की कुक्षि में प्रविष्ट पृथिवीभेद आदि भेदाष्टक गुण आदि में प्रसिद्ध है, तव्यत्व पृथिवी आदि में प्रसिद्ध है, अतः साध्य एवं उस का सम्बन्ध दोनों के प्रसिद्ध होने से उक्त साध्य की अनुमिति में बाधा नहीं