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________________ स्याः क, टीका-हिन्दी विधचन ] [२३ भूयः प्रयोगादेवाऽऽवापोद्वापाभ्यामेव शक्तिनिश्चयात् । न चास्थिरस्य पुनः पुनरुचारणं संभवतीति सिद्धं तनित्यत्वम् । तदुक्तम् - " दर्शनस्य परार्थत्वाद् नित्यः शब्दः " इति । अथ पुनः पुनरुच्चरिताच्छन्दात् सादृश्यादेव प्रतीतिः, न तु नित्यत्वादिति चेत् ? न सादृश्यस्याऽतन्त्रत्वात् , अगृहीतसंकेतादर्थाऽप्रतीते; 'य एवं संबन्धग्रहणसमये गृहीतः शब्दः स एवायम्' इति प्रत्यभिज्ञानाच्च । न च नित्यत्वे शब्दस्य सर्वदा सपिलब्धिप्रसङ्गः, परेषां शब्दोत्पादकानामेव विजातीयवायुसंयोगादीनामम्माभिः शब्दव्यञ्जकत्वेनोपगमात् । न च शब्दनित्यत्वे चैत्रादेः स्वीयमैत्रशुकादीयककारादिप्रत्यक्षे चैत्रादिकावन्छिन्ना विजातीयवायुसंयोगा हेतवो वाच्या इत्यतिगौरवम्, अनित्यत्वपक्षे तु विजातीयवायुसंयोगावच्छेदकतया तथैव विजातीयककारादौ हेतुस्तत्पुरुषीयनिखिलशब्दप्रत्यक्षे तत्पुरुषीयकवाँच्छन्नसमचाय इति लाघवमिति वाच्यम् ; नित्यत्वपक्षेऽपि विजातीयककारादिप्रत्यक्षेऽवच्छेदकतया विजातीयसंयोगस्य तत्तत्कविच्छिन्नप्रत्यक्षे च तचकर्णस्य हेतुत्वे गौरवाभावात् । स्यावच्छेदकश्रोत्रसंयुक्तमन प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसंबन्धन विजातीयपवनस्य हेतुत्ये तत्तकर्णानां प्रयोजक वृद्ध से प्रयुक्त 'गामानय' इस प्राक्यको सुनकर प्रयोज्य वृद्धकी गौआगयन में प्रवृत्ति होती है यह प्रवृत्ति प्रयोज्यवृद्ध के गौमानयन व्यापार से अनुमित होती है। प्रवृत्ति के शात हो जाने पर उसके कारण का अनुमान होता है। उसका कारण है प्रयोजक वृद्धके वाक्य से प्रयोज्यवृद्ध को होनेवाला गौ-आनयन में कर्तव्यता का शान। इस ज्ञान के अनुमित हो जाने पर प्रयोज्यवृद्ध के गामानय' इस वाक्य में गोआनयन में कर्तव्यता बोध की जनकता का अनुमान हो जाता है। इस के अनन्तर आनय पद के साथ द्वितीयान्त गोपद के सन्निधान असग्निधान रूप आयाए उहाष से गोआदिपद में गौआदि अर्थ के संकेत का आनुमानिक शान होता है। इसप्रकार प्रयोजकवृद्ध के वाक्य श्रवण के अनन्तर प्रयोज्य वृद्ध के गौआनयम व्यापार से अतिरिक्त सभी विषयों का अनुमान द्वारा बोध होकर शब्दार्थसम्बन्ध का आनुमानिक ज्ञान होने से शब्दार्थ के संगतिआत्मक सम्बन्धको अनुमानवेद्य कहा जाता है। सभी शब्दों से सब अाँका बोध नहीं होता है किन्तु नियत शब्दोंसे ही नियत अर्थों का बोध होता है, यह बोध शब्द के साथ अर्थ का सम्बन्ध माने विना अनुपपन्न है, क्योंकि शब्द को असम्बद्ध अर्थका बोधक मानने पर सब शब्दों से सब अथों के बोध की आपत्ति का परिहार नहीं हो सकता। इस प्रकार नियत शब्द से नियत अर्थबोधकी अन्यथानुपपति रहने से गौआदि अर्थ में गौआदि शब्दों के शक्ति सम्बन्ध कार शान होने से शब्दार्थ सम्बन्ध को अन्यथानुपपत्तिप्रमाणवेध माना जाता है । उक्त रीति से होने वाला शब्दार्थ के संगतिआत्मक सम्बन्ध का बोध वाक्य के एक बार प्रयोग से नहीं हो सकता किन्तु वाक्य के अधिकाधिक प्रयोग से ही हो सकता है। और वाक्य घटक तत्त शब्दों में नत्तदर्थक शक्तिसम्बन्ध का निश्चय तत्तदू शब्द के साथ तत्तदर्थबोध के आवापउद्याप अन्षयव्य तिरेक से ही हो सकता है। ऐसी स्थिति में वर्ण को नित्य मानना आवश्यक है क्योंकि वर्ण को अमित्य और अस्थिर मानने पर वर्णसमूहरूप पाक्य भी अनित्य और अस्थिर होगा अतः उसका पुन: पुन: उच्चारण नहीं हो सकता, फलतः वाक्य का अधिकाधिक प्रयोग न हो सकने से शब्दार्थ का सम्बन्धग्रह नहीं हो सकता। कहा भी गया है कि
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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