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[शास्त्रत्रा० १०५ परार्थवाक्योच्चारणान्यथानुपपत्तेः। अवगतसंगतिको हि शब्दः स्वार्थ प्रतिपादयति, नान्यथा, अगृहीतसंकेतस्य पुसः शब्दादर्थप्रतीत्यदर्शनात् । संगत्यवगमश्च प्रमाणत्रयसंपायः; तटस्थेन प्रत्यक्षेण शब्दार्थप्रत्ययात्; अनुमानेन प्रयोज्यवृद्धीयगवादिविषयप्रतिपत्त्यवगमात् तत्प्रतीत्यन्यथानुपपत्त्या च गबादिशब्दानां गवादौ शक्तिकल्पनात् । इत्थंभूतश्चाय संगत्यवगमो न सकृद्राक्यप्रयोगात् संभवति,
[वैदिक प्रमा के लिये आप्तोक्तत्व का निश्चय अनावश्यक ] ___ यदि यह कहा जाय कि - 'अनाप्त वाक्य से शाब्दी प्रमा की आपत्ति के परिहारार्थ शानदप्रमा में 'शब्द में आलोकसत्व निश्चय' को कारण मानना आवश्यक है। अतः वेदजन्य प्रमा की उपपत्ति के लिये घेद में भी आप्सोक्तत्व का निश्चय अपेक्षित है। अनान्त पुरुष को यह निश्चय तभी हो सकता है जब वेद को सर्वशकथित माना जाय, इसप्रकार वैदिक प्रमा के लिये सर्वज्ञ की कल्पना आवश्यक है। व्याख्यामें इस बातको यह कहते हुये प्रस्तुत किया है कि वाक्य में आप्तोक्तत्व का निश्चय शाब्दबोध सामान्य का कारण है। वेद आप्तोक्त नहीं है अतः उत्त में आप्तोनात हा निभय न होने दो बेदाणसषेयत्व पक्षमें वेद से शादषोध की उत्पत्ति न होगी। आशय यह है कि वाक्य में यदि आप्तोक्तत्व का संशय अथवा आप्तोपतत्वाभाष का निश्चय हो जाता है तब शाब्दबोध की उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु जब वाक्य में प्राप्तीक्तत्व का संशय अथवा आप्तोक्तत्वाभाय का निश्चय नहीं रहता तभी शाब्दबोध की उत्पत्ति होती है। इसपकार अन्वयध्यतिरेक द्वाग यह सिद्ध होता है कि शाब्दयोधसामान्य में आप्सोक्तत्व का निश्मय कारण है, अत: यह कहना न्यायप्राप्त है कि बंद को अबक्क मानने पर वेद में आपलाक्तत्व का निश्चय न होने से वेद से शाब्दबोध का उदय नहीं हो सकता - " फिन्तु यह आक्षेपात्मक कथन टीक नहीं है क्योंकि अनामोक्तत्पशङ्का ही शाब्दबोधसामान्य की प्रतिबन्धक होती है और यह शङ्का लौकिकवाक्य में ही संभव हो सकती है. अत एवं उस शङ्का के परिहार के लिये लौकिकवाक्य में ही आतीक्तत्वनिश्चय की अपेक्षा उचित है। वेद तो नित्य
यं निषि है अतः उस में अनातोक्तत्व शङ्का का संभव न होने से वेदजन्य शाब्दबोध के लिये बेद में आप्तोक्तत्व निश्चय की अपेक्षा नहीं है। वेद में तो उक्त शङ्का का परिहार नित्यत्य और निदोषत्व से ही सुकर है।
1 [वर्णात्मक वेद में नित्यत्व का उपपादन] "वर्णरूप घेद नित्य कैसे हो सकता है। इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वर्ण यतः नित्य है अत: तत्स्वरूपवेद भी नित्य है क्योंकि यदि वर्ण को नित्य नहीं माना जायगा तो अन्य पुरुषों को अर्थबोध कराने के लिये वाक्य का उच्चारण न हो सकेगा | आशय यह है कि
शब्द में जब अर्थ की संगति ज्ञात हो जाती है तभी शब्द अर्थ का बोधक होता है, अन्यथा नहीं होता क्योंकि जिस पुरुष को शब्द का संकेतग्रह नहीं रहता उस पुरुष को शब्द से अर्थयोध नहीं होता, अर्थ में शब्द का संगतिआत्मक सम्बन्ध तीन प्रमाणों से ज्ञात होता है। प्रत्यक्ष अनुमान और अन्यथासुपपत्ति । इन में प्रत्यक्ष, शब्द और अर्थ के सम्बन्ध में तटस्थ रहकर पल शब्द और अर्थका बोध उत्पन्न करता है। शब्द और अर्थरूप दोनों सम्बन्धियों का ज्ञान हो जाने पर उनके सम्बन्ध का मानस बोध हो जाता है। उक्त रीतिसे शब्दार्थसम्बन्ध परम्परया प्रत्यक्षगम्य होने से शम्दार्थसम्बन्धज्ञान को प्रत्यक्षमूलक कहा जाता है।