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स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
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प्रमायामपि ज्ञानसामान्यहेत्वतिरिक्तहेत्वपेक्षणाद् नेतद् युक्तमिति चेत् ? न, अप्रमायां दोषाऽपेक्षणात्, प्रमायां तदभावापेक्षणेऽविरोधाद् । 'विशेषादर्शनाद्यभावभूतदोषाभावस्य भावभूतस्य प्रमायामधिकस्थापेक्षणीयत्वाद् विरोध एवेति चेत् न, तथापि शब्दे विप्रलिप्सादिदोषाणां भावभूतत्वात् समष्ट्या प्रमायां तदभावमात्राधीनायां वक्तृगुणानपेक्षणात् । अथाप्तोक्तत्वनिश्चयस्य शाब्दबोधसामान्ये हेतुत्वाद वेदे तदभावात् कथं ततः शाब्दबोधः ? इति चेत् ? न, अनाप्तोक्तत्वशङ्काया एव शाब्दसामान्यविरोधिन्या व्युदासार्थमान्तोक्तत्वनिश्वयापेक्षणान् वेदे तु नित्यतया निर्दोषत्वेनैव तच्छड़काव्युदासात् ।
'नित्यत्वमेव कथं वर्णरूपस्य वेदस्य ?' इति चेत् ? सत्यम्, चर्णानां नित्यत्वात्, अन्यथा
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प्रकार अमा-श्रम की उत्पत्ति में ज्ञानसामान्य के हेतु से अतिरिक्त हेतु की अपेक्षा होती है उसी प्रकार प्रमा की उत्पत्ति में भी शामसामान्य के हेतु से अतिरिक्त हेतु की अपेक्षा आवश्यक है । अन्यथा यदि प्रमा की उत्पत्ति शानसामान्य के हेतु से ही होगी तो अप्रमा की उत्पत्ति के समय ज्ञानसामान्य के हेतुओंका नियतसन्निधान होने से अप्रामा में भी प्रभात्य की आपत्ति होगी, क्योंकि व भी अतिरिक्त हेतु सहित ज्ञानसामान्य के हेतुओं से उत्पन्न होती है | अतः अप्रमा में प्रमात्व की आपति का परिहार करने के लिये प्रमा के ज्ञानसामान्य हेतुओं से अतिरिक्त भी हेतु मानना आवश्यक है। इस स्थिति में वेद को सर्व रचित माने विना वेद से प्रमात्मक ज्ञान का उदय नहीं हो सकता। क्योंकि वेदजन्य प्रमा शाब्दबोधात्मक प्रमा है। शाब्दबोधात्मक प्रम में वक्ता का वाक्यार्थ विषयक यथार्थज्ञान अपेक्षित होता है। " किन्तु यह कथन ठीक नहीं है; क्योंकि अप्रमा की उत्पत्ति में दोष की अपेक्षा होती है इसीलिये प्रमा की उत्पत्ति में दोषाभाष की अपेक्षा मान देंगे, फिर भी प्रभा को ज्ञानसामान्य के हेतु से अतिरिक्त किसी भावात्मक हेतु से जन्य न मानने से अप्रमा में प्रत्य की आपत्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार वक्तृदोषाभाव से ही वेदजन्य ज्ञान में प्रमात्य की उपपत्ति संभव होने सर्व वेदवक्ता होनेकी कल्पना अनावश्यक है।
[ विशेष दर्शनाभाव से प्रमा में अतिरिक्त हेतु की सिद्धि ]
यदि यह कहा जाय कि विशेषदर्शनाभावरूप अभावात्मक दोष का अभाव विशेष दर्शनात्मक यानी भावस्वरूप होता है और वह प्रमा की उत्पत्ति में अपेक्षित होता है क्योंकि दूर से दिखायी पडनेवाले ऊचे द्रव्य में स्थाणु के चक्र कोटर आदि अथवा पुरुष के कर-चरण आदि विशेष का दर्शन न होने से ही उस में स्थाशुत्व अथवा पुरुषस्य का सन्देह अथवा भ्रम उत्पन्न होना है, अत एव उस सन्देह और भ्रमका उत्पादक विशेषदर्शनाभावरूप दोष ही है किन्तु जब स्थाणु या पुरुष के विशेष धर्म का दर्शन हो जाता है तब विशेषदर्शनाभावरूप होप के विशेष दर्शनात्मक अभाव से स्थाणुत्व और पुरुषत्व की प्रमा उत्पन्न होती है। इसलिये यह कहना कि प्रमा में अभाषात्मक दोषाभाव की ही अपेक्षा होती है, ज्ञान सामान्य हेतुओं से भिन्न एवं अभावात्मक दोषाभाव से भिन्न प्रमा का कोई हेतु नहीं होता यह कथन विरुद्ध है - " तो यह ठीक नहीं है क्योंकि शब्द में विमलला आदि भावभूत ही दोष होते हैं अतपत्र उन दोषों के अभावमात्र से वेदजन्यप्रमा की उपपत्ति हो सकती है, अत: उस में वाक्यार्थविषयक यथार्थज्ञानरूप वक्तृ गुण की अपेक्षा न होने से वेद को सर्वश रचित मानने की आवश्यकता नहीं है ।