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[शास्त्रवार्ता १० पृथगहेतुत्वेन प्रत्युत लाघवात् । न च तथाप्यनित्यत्वपक्षे कप्रत्यक्षवाद्यपेक्षया कस्वादेरेव जन्यतावच्छेदकत्वे लाघवम् , नित्यत्वपक्षेऽपि लोकिकशि कितना का था ।
न च कोलाहलादौ कत्वादेरग्रहे ऽयीदवशब्दत्वादिना ककारादिप्रत्यक्षात् तत्तत्यकारक-ककारादिप्रत्यक्षे पृथग्घेतुस्त्रे गोरखम्, ककारादिनिष्ठगुण स्वादि-खकारभेदादिप्रत्यक्षे तथात्वे चातिगौरवमिति
दर्शन मनुष्य का अर्थधोध' शब्द द्वारा परार्थ होता है इसलिये शब्द को निस्य मानना आवश्यक है क्योंकि शब्द को अनित्य मानने पर वाक्य का बार बार प्रयोग न हो सकने के कारण शब्दाथे के सम्बन्ध का शान न होने से शब्द द्वारा अपने अर्थबोध का पर पुरुषों में सम्प्रेषण नहीं हो सकता।
[सदृश शब्द से बार बार उन्चारण की उपपत्ति अनुचित ] यदि यह कहा जाय कि - ' एक ही शहद का बार बार उञ्चारण नहीं होता किन्नु एक शरदका पक ही बार उच्चारण होता है। एक बार उच्चारित शब्द के सदृश अन्यान्य शब्दोंके उच्चारण को ही प्रथमोशरित शब्द का पुन: पुनः उच्चारण कहा जाता है। इसप्रकार के पुन: पुनः शब्दोच्चारण से ही शब्दार्थ का मम्बन्धग्रह हो सकता है. उस के लिये पक शब्द व्यक्ति के पुनः पुनः उशारण की आवश्यकता नहीं है। अत: उक्तयुक्ति से शब्द की नित्यता का साधन नहीं हो सकता-' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि शब्द से अर्थबोध में सारश्य अप्रयोजक है। जिस शन में जिम अर्थ का संकेतग्रह होगा उस शब्द से ही उस अर्थ का बोध हो सकता है किन्नु जिस शब्द में अर्थ का संकेत ग्रह नहीं है उस में गृहीनसंकेतक शब्दका सादृश्य होने पर भी उस से अर्थबोध नहीं हो सकता । जैसे किसी शाम्राज्ञ मनुष्य का, शास्त्रज्ञानशून्य मनुष्यान्तर में पर्याप्त सारश्य होने पर भी उस से शास्त्रज्ञमनुष्य के शास्त्राध्यापनरूप कार्य का सम्पादन नहीं होता। इसलिए एकाकार एक ही शब्द की सार्वत्रिकता और मादिकता आवश्यक होने से तदर्थ शब्द को नित्य मानना आवश्यक है। इस के अतिरिक्त. प्रत्यभिज्ञारूप प्रत्यक्ष प्रमाण से भी शब्द का नित्यत्व सिद्ध होता है। जैसे. यह सर्वविदित है कि किसी शब्द में किसी अर्थ के सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त करने के बाद मनुष्य जब उस शब्द को पुनः सुनता है तब उसे यह प्रत्यभिज्ञा होती है कि सम्बन्धज्ञान के समय जिस शब्द में अर्थ का सम्बन्ध ज्ञान हुआ था-यह बही शब्द है।' ___ यदि शब्द निन्य न हो तो लम्बन्धज्ञान के समय जो शब्द ज्ञात हुआ था वह अब तक नहीं रह सकता, अत: इस समय सुनाई देने वाले शब्द में उस शब्द के ऐक्य की प्रत्यभिज्ञा यथार्थ नहीं हो सकती किन्नु है यह यथार्थ, क्योंकि उतरकाल में इस का बाध नहीं होता, अतः इस प्रमात्मक प्रत्यभिशा के अनुरोध से शब्द के नित्यत्व की सिद्धि अनिवार्य है।
[शब्द के नित्यत्वपक्ष में सर्वदा सर्वोपलब्धि प्रसंग का निराकरण ] यदि यह कहा जाय कि- 'शब्द' के नित्य होने पर सब शादों के सर्वदा श्रावण-प्रत्यक्ष की आपति होगी-' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि शब्द अनित्यत्ववादी के मत में विजातीय वायुसंयोग आदि जो शब्द के उत्पादक माने जाते है, - शब्द नित्यस्ववादी के मत में वे ही सब शब्द के व्यञ्जक होते है, अत: शब्दव्यञ्जकों का सर्वदा सन्निधान न होने से शब्द के सर्वदा प्रत्यक्ष की आपति नहीं हो सकती ।