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स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
शब्द अनिस्यतावादी यह कहता है कि शब्द नित्यत्वपक्ष में अपने तथा मैत्र, शुक आदि के, ककार आदि वर्गों के प्रत्यक्ष में क्षेत्र आदि के कर्ण में विजातीयवायुसंयोग को हेतु मानना होगा । अन्यथा यदि कार्यदल में चैत्र आदि का निवेश न करेंगे तो मैत्र आदि के कणं मे मैत्र-शुक आदि के ककार आदि के व्यनक विजातीयवायुसंयोग होने पर चैत्रादि से अन्य दूरस्थ मनुष्यों को भी उस्त. ककारादि के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। एवं कारणदल में चशविकर्ण का निवेश न करने पर पुरुषान्तर के कण में ककारादि के व्यनक विजातीय वायुसंयोग होने पर चैत्रादि को ककारादि के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी । अतः शदनित्यत्व पक्षमें शब्द और विजातीय वायुमंयोग आदि में व्यङ्गध-व्यनकभाव की कल्पना करने में अत्यन्त गौरव है। शब्द के अनित्यत्वपक्ष में इसप्रकार का गौरव नहीं है, क्योंकि उस मत में, अबच्छेदकता सम्बन्ध से विजातीय ककार मादि में विजातीय वायु संयोग, अपच्छेदकता सम्बन्ध से कारण होता है, एवं तत्पुरुषीय निखिल शब्द के प्रत्यक्ष में तत्पुरुषीय कछिनसमवाय हेतु होता है, इसलिये लाघव है।
कहने का आशय यह है कि शभनित्यन्ववाद में क-गल आदि वर्ण सर्वत्र सर्वदा एक ही है, उस की अभिव्यक्ति क्षेत्र, मैत्र, शुक भादि किसी से भी होने पर उस में कोई विलक्षणता नहीं होती क्योंकि नित्य और एक होने से उस में बैजात्य संभव नहीं है। किन्तु विभिन्न व्यक्तियों से अभिव्यजित एक ही वर्ण का श्रोता को विलक्षण प्रत्यक्ष होता है। इस की उपपति के लिये पत्र के अपने कार के प्रत्यक्ष में चत्रकर्णाधम्रेधाविजातीयषायुसंयोग, मैत्रीयककार के प्रत्यक्ष में दूसरा विजातीय वायुसंयोग और शुक आदि के ककार के प्रत्यक्ष में अन्य विजातीय पायुसंयोग को कारण मानना होगा। इस प्रकार विभिन्न व्यक्तियों में अभिव्यभित पक ही कवर्ण के प्रत्यक्ष में विभिन्न विजातीयवायुसंयोगों को कारण मानना होगा पत्र पक श्रोता को जो ककारादि का प्रत्यक्षरूप कार्य होता है उस में विभिन्न उचारणकर्ताओं का सनिवेश करना होगा। जैसे,
चित्रगत चैत्रीयककार प्रत्यक्ष, नगत मैत्रीयककार प्रत्यक्ष, चैत्रगत शुकादीयककारप्रत्यक्ष में विभिन्न विजातीय वायुसंयोगों को कारण मानना होगा। इस प्रकार कार्यदल में ककारादि में विभिन्न उच्चारण कर्ताओं के निवेश करने से प्रति श्रोता को होनेवाले कषण के प्रत्यक्ष को लेकर अनन्त गुरुतर कार्यकारणभाष की कल्पना होने से अपार गौरव है। किन्तु, शब्दाऽनित्यत्वपक्ष में विभिन्न उच्चारण कर्ताओं के ककारादि में सहज लक्षण्य होता है, अतः उन के मत में अवमछदकता सम्बन्ध से विजातीय ककारादि कार्य के प्रति अवच्छेदकता सम्बन्ध से विजातीय संयोग की कारणता होती है। इस कार्यकारणभाव के गर्भ में उच्चारणकर्ता का विशेषरूप में निवेश नहीं होता। अतएव इस कार्यकारणभाव में उत्पाघ विजातीय ककारादि और उत्पादक विजातीय वायुसंयोगादि के कार्यकारणभाव में, उत्पाद्य और उत्पादक के वेजात्यभेद स ही भेद होता है। उच्चारण कर्ता के भेद म भेद नहीं होता। श्रोता को जो ककारादि का विलक्षण प्रत्यक्ष होता है घड विषयभूत ककार आदि के बैजान्य से ही सम्पन्न हो जाता है। अत: उस के लिये विजातीय कारण की कल्पना की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु सामान्यत: शब्दनिष्ठविषयता सम्बन्ध से तापुरुषीयप्रत्यक्ष के प्रति, सत्पुरूषीय कर्णायचंद्रघसमवाय को. प्रतियोगित्य सम्बन्ध से कारण मान लेने से काम चल जाता है क्योंकि जो भी शब्द तत्पुरुषीय कर्णावच्छेदेन उत्पन्न होगा उस में तत्पुरुषीय कर्णावच्छिन्न समवाय, प्रतियोगित्वसम्बन्ध से रहेगा और उस शब्द में उत्पादकाधीन जो वैज्ञात्य होगा उस जात्य रूप से उस शब्द का तत्पुरुष को प्रत्यक्ष हो जायगा। अत: शब्दाऽनित्यत्व पक्ष में उच्चारण कर्ता के भेद से और विजातीय वायुसंयोग मावि के भेद से