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(शाखवार्ता० १०/६
न तो शब्द और वायुसंयोग के कार्यकारणभाव में गौरव है और न तत्पुरुषीयशम्दप्रत्यक्ष एवं तत्पुरुषीय काविच्छिन्न समशय के कार्यकारणभाव में गौरव है। अतः इस पक्ष में शब्द नित्यत्वपक्ष की अपेक्षा लाघध स्पष्ट है।
[शब्द नित्यस्वपक्ष में गौरव का परिहार] व्याख्या के अनुसार, उक्त गौरव-लाधव के विचन के आधार पर शब्दामित्यत्ववादी के
| समर्थन उचित नहीं प्रतीत होता, क्योंकि नित्यत्वपक्ष में भी ककारादि के विजातीय प्रत्यक्ष में अवच्छेदकता सम्बन्ध से विजातीयसंयोग को और तसत्काछिन्म प्रत्यक्ष में तत्तत्कर्ण को कारण मान लेने से गौरव नहीं होगा। प्रथम कार्यकारणभाव में कार्यता और कारणता दोनों अवच्छेदकता सम्बन्ध से अभिमत है। दूसरे कार्यकारणभाष में कार्यता का अवच्छेदक सम्बन्ध है अवच्छेदकता, और कारणता का अपरछदक सबन्ध हे तादात्म्य ।
दुसरी बात यह है कि दूसरे कार्यकारणभाव को मानने की आवश्यकता नहीं है किन्तु एक यही कायकारणभाष मानना उचित है कि अवच्छेदकला सम्बन्ध से ककारादि के विजातीप प्रत्यक्ष में स्वावच्छेदक श्रोत्रसंयुक्त मन:प्रतियागिक विजातीय संयोगसम्बन्ध से विजातीय पवन का विजातीय पवनसंयोग कारण है।
आशय यह है कि यजातीयपवन के यजातीय संयोग सम्बन्ध से चैत्र के कण्ट से ककार अभिव्यक्त होगा तजातीय पषन के तजातीयसंयोग की श्रोता के मनः संयुक्तकर्ण में उत्पत्ति होने पर श्रोता को चषकण्ठाभिव्यक्त ककार का प्रत्यक्ष होता है।
व्याल्या में विजातीयपवनसंयोग को जिस सम्बन्ध से कारण कहा गया है, उस सम्बन्ध में स्व-पद से श्रोता के श्रोत्रपठेदन उत्पन्न होनेवाला विजातीयपवनसंयोग विधक्षित है। उस का अवच्छेदक है प्रोत्र, उस से संयुक्त है मन, उस मन का विजातीयसंयोग है आत्मा और मनका संयोग, वह श्रोतृभूत आत्मा में रहता है अतः उस सम्बन्ध से विजातीय पवन संयोग भी आत्मा में रहता है इसलिये विजातीयपवनसंयोग ककारादि के विजातीय प्रत्यक्ष में कारण है। इस कायकारणभावको स्वीकार करने पर तत्तत्कर्ण को तत्तत्कर्णावच्छिन्न प्रत्यक्ष के प्रति कारण म मानने से शयनित्यत्वपक्ष में गौरथाभात्र ही नहीं, किन्तु शम्दानित्यत्वपक्ष की अपेक्षा लाघव भी है।
यदि यह कहा जाय कि 'शब्दशनित्यत्वपक्ष में कविषयकप्रत्यक्षत्व आदि की अपेक्षा कत्य आदि को थायुकण्ठादिअभिघात का कार्यतावच्छेदक मागने में लाघव है' तो यह ठीक नहीं है क्योकि शब्द नित्यत्वपक्ष में भी लौकिकवियितासम्बन्ध से कत्यादि ही उक्त अभिघात का जन्यतावच्छेदक है। ___ यदि यह कहा जाय कि-'कोलाहल आदि के समय कत्व आदि का ज्ञान न होने पर भी इदनव-शब्दत्व आदि रूप से ककारादि का प्रत्यक्ष होता है । अत: इयत्व-शब्दस्वादि रूप से ककारादि प्रत्यक्ष में पृथक कारण की कल्पना में गौरव होगा और ककार आदि का गुणत्व आदि एवं खकार भेद आदि रूप से भी प्रत्यक्ष होता है इसलिये तत्तत्रूप से ककारादि के प्रत्यक्ष में भी पृथक कारण की कल्पना आवश्यक होने से अत्यन्त गौरव होगा | शब्दानित्यत्वपक्ष में यह दोष नहीं है क्योंकि उक्त अभिघात से ककार आदि की उत्पत्ति कत्वादि रूप से ही होती है न कि उन सभी रूपों से, जिन रूपों से उस का प्रत्यक्ष होता है। अतः इस मत में कत्वादि को ही